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________________ १९६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ९-७, ३५. इस उपर्युक्त कथनका कोष्टक इस प्रकार हैस्थितिबन्ध कर्मोंके नाम एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय असंही पंचेन्द्रिय उत्कृष्ट मिथ्यात्व १ सागरो-२५ साग. ५० साग. १०० साग. १००० सागरोपम पम सोलह कषाय ४, २०० ४.०० ज्ञानावरण दर्शनावरण वेदनीय अन्तराय नामकर्म गोत्रकर्म ० १०० २०० २००० नोकषाय अपनी उत्कृष्ट स्थितिमेसे पल्यका असंख्यातवां भाग कम करनेपर जो प्रमाण शेष रहे, उतनी जघन्य स्थितिको एकेन्द्रिय जीव बांधते हैं । द्वीन्द्रियसे लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तकके जीव अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिमेसे पल्यका संख्यातवां भाग कम करनेपर जो प्रमाण शेष रहे, उतनी जघन्य स्थितिको बांधते हैं । संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंका उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिबन्ध सूत्रोंमें पृथक् पृथक् दिखाया गया है । उसका कोष्टक इस प्रकार है संज्ञी | मिथ्यात्वकर्म पंचेन्द्रिय | दर्शनमोहनीय चारित्रमोहनीय ज्ञानावरण दर्शनावरण वेदनीय अन्तराय नामक | आयुकर्म गोत्रकर्म उत्कृष्ट | ७० कोड़ाकोड़ी | ४० कोड़ा. सागरो. सागरो. ३० कोड़ा. सागरो. २० कोड़ा. ३३ सागरोपम सागरो. जघन्य अन्तर्मुहूर्त १२ अन्त. वेदनीयकी अन्तर्मुहूर्त ८ अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त १ , शेष कर्मोंकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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