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छक्खंडागमे जीवद्वाणं
सुगममेदं । अंतोमुहुत्तमाबाधा ॥ ३२ ॥
कुदो ? असंखेपद्धादो उवरिमआबाधाणं जहण्णट्ठिीए सह विरोधादो ।
आबाधा ॥ ३३ ॥
कम्मद्विदी कम्मणिसेगो ॥ ३४ ॥
दाणि दो वाणि सुगमाणि ।
णिरयगदि देवगदि वे उब्वियसरीर- वे उव्वियसरीर अंगोवंग- णिरयगदि देवग दिपाओग्गाणुपुव्वीणामाणं जहण्णगो द्विदिबंधो सागरोवमसहस्सस्स वे सत्तभागा पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागेण ऊणया ||३५|
[ १, ९-७, ३२.
कुदो ? सव्चविसुद्वेण असणिपंचिदिएण बज्झमाणत्तादो । एदस्स परूवणङ्कं एत्थु जुज्जतं किंचि अत्थपरूवणं कस्सामो । तं जहा - एइंदिएसु मिच्छत्तस्सुक्कस्सदिबंध गं सागरोवमं । कसायाणं सागरोवमस्स चत्तारि सत्तभागा । णाणदंसणावरणंतराइय-वेदणीयाणं तिष्णि सत्तभागा । णाम- गोद- गोकसायाणं वे सत्तभागा । १ । ३ ।
विरोध है ।
यह सूत्र सुगम है ।
तिर्यगायु और मनुष्यायुका जघन्य आबाधाकाल अन्तर्मुहूर्त है || ३२ || क्योंकि, असंक्षेपाद्वा कालसे ऊपरकी आवाधाओंका जघन्य स्थिति के साथ
आबाधाकाल में तिर्यगायु और मनुष्यायुकी कर्मस्थिति बाधा - रहित है ॥ ३३ ॥ तिर्यगायु और मनुष्यायुकी कर्मस्थितिप्रमाण उनका कर्म-निषेक होता है ॥ ३४ ॥ ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं ।
नरकगति, देवगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीर- अंगोपांग, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध पल्योपमके संख्यातवें भागसे हीन सागरोपमसहस्रके दो बटे सात भाग है ।। ३५ ।
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क्योंकि, यह जघन्य स्थिति सर्वविशुद्ध असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवके द्वारा बांधी जाती है। इसी जघन्य स्थितिबन्धके प्ररूपण करनेके लिए यहांपर उपयोगी कुछ अर्थ की प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है- एकेन्द्रिय जीवोंमें मिथ्यात्वकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक सागरोपम (१) है । कषायोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक सागरोपमके चार बटे सात भाग () है | ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय और वेदनीय, इन कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक सागरोपमके तीन बढ़े सात भाग ( 3 ) है । नामकर्म, गोत्रकर्म और नोकषायका
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