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१, ९–७, ३१. ]
चूलियाए जहण्णद्विदीए चदुआउआणि
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णिरयाउअ - देवाउअस्स जहण्णओ ट्ठिदिबंधो दसवास सह
साणि ॥ २७ ॥ सुगममेदं ।
अंतो मुहुत्तमाबाधा ॥ २८ ॥
पुत्र कोडितिभागे वि भुजमाणाउए संते देव णेरइय दस वासस हस्सआउडिदिबंध - संभवादो पुत्रको डितिभागो आवाधा ति किष्ण परुविदो १ ण, एवं संते जहण्णहिदीए अभावप्यसंगादो |
आबाधा ॥ २९ ॥
कम्मट्टी कम्मणिसेओ ॥ ३० ॥
दाणि दो वित्ताणि सुगमाणि ।
तिरिक्खाउअ मणुसाउअस्स जहण्णओ ट्ठिदिबंधो खुद्दाभवगणं ॥ ३१ ॥
नारका और देवायुका जघन्य स्थितिबन्ध दश हजार वर्ष है || २७ ॥ यह सूत्र सुगम है ।
नारका और देवायुका जघन्य आबाधाकाल अन्तर्मुहूर्त है ॥ २८ ॥
शंका - भुज्यमान आयुमें पूर्वकोटीका त्रिभाग अवशिष्ट रहने पर भी देव और नारकसम्बन्धी दश हजार वर्षकी जघन्य आयुस्थितिका बन्ध संभव है, फिर ' पूर्वकोटिका त्रिभाग आबाधा है ' ऐसा सूत्रमें क्यों नहीं प्ररूपण किया ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, ऐसा माननेपर जघन्य स्थितिके अभावका प्रसंग आता है । अर्थात् पूर्वकोटिका त्रिभागमात्र आबाधाकाल जघन्य आयुस्थिति बन्धके साथ संभव तो है, पर जघन्य कर्मस्थितिका प्रमाण लाने के लिये तो जघन्य आबाधाकाल ही ग्रहण करना चाहिए, उत्कृष्ट नहीं ।
आधाकालमें नारकायु और देवायुकी कर्मस्थिति बाधा रहित है ॥ २९ ॥ नारकायु और देवयुकी कर्मस्थितिप्रमाण उनका कर्म-निषेक होता है ॥ ३० ॥ ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं । तिर्यगायु और मनुष्यायुका जघन्य स्थितिबन्ध क्षुद्र भवग्रहणप्रमाण है ॥ ३१ ॥
१ xxx वासदसस हस्ताणि । सुरणिरय आउगाणं जहणओ होदि ट्ठिदिबंधो ॥ गो. क. १४२. ३ भिण्णमुहुत्तो णरतिरियाऊणं ॥ गो . क. १४२.
२ प्रतिषु ' सिंते' इति पाठः ।
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