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________________ १९२ ) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ९-६, २५. सव्वविसुद्धेसु घेत्तव्या, अण्णत्थ सबजहण्णद्विदिवंधस्स अणुवलंभादो । किं कारणं ? जादिविसोहीओ आवेक्खिय हिदिबंधस्स जहण्णत्तसंभवादो । अंतोमुहुत्तमाबाधा ॥ २५॥ आवाधूणिया कम्मट्टिदी कम्मणिसेओ ॥२६॥ सुगमाणि दो वि सुत्ताणि । सूत्रोक्त एकरूप न होकर क्रमशः पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन , १६, १७, ७४, १२ और : कोडाकोड़ी सागरोपम होना चाहिये ? इस शंकाका धवलाकारने यह समाधान किया है कि उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति वरावर २० कोड़ाकोड़ी सागरोपम न होने पर भी उनकी मूलप्रकृतिकी अपेक्षा सामान्यरूपसे उत्कृष्टस्थिति २० कोड़ाकोड़ी सागरोपम मानी गई है, और उसी मूलप्रकृति सामान्यकी अपेक्षा नपुंसकवेदादि और स्त्रीवेदादिकी जघन्यस्थिति एकसी मान लेनेमें कोई विरोध नहीं आता। यहांपर पुनः यह दूसरी शंका उठ खड़ी हुई कि यदि मूलप्रकृतिके सामान्यकी अपेक्षा नामकर्मकी उक्त उत्तर प्रकृतियोंकी जघन्यस्थिति एकसी ग्रहण की गई सो तो ठीक है, पर स्त्रीवेद, हास्य और रति तो चारित्रमोहनीयके भेदरूप नोकषाय हैं, और इसलिए उन्हें कषायोंका अनुसरण करना चाहिये। कषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति ४० कोड़ाकोड़ी सागरोपम है । अतएव उक्त इन नोकषायोंकी सूत्रोक्त जघन्य स्थिति सिद्ध नहीं होती। इसका धवलाकारने यह समाधान किया है कि नोकषाय कषायोंका अनुसरण नहीं करते । प्रकृतिसमुत्कीर्तन चूलिकामें कहा जा चुका है कि “स्थितियोंकी, अनुभागकी और उदयकी अपेक्षा कषायोंसे नोकषायोंके अल्पता पाई जाती है।” (देखो इसी भागका पृ. ४६.)। यह सूत्रोक्त जघन्यस्थिति सर्वविशुद्ध बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंमें ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि, अन्यत्र सर्वजघन्य स्थितिवन्ध पाया नहीं जाता है। शंका-बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंके सिवाय अन्यत्र सर्वजघन्य स्थितिबन्ध नहीं पाये जानेका क्या कारण है ? समाधान-विशिष्ट जातियोंकी विशुद्धियोंको देखकर ही स्थितिबन्धके जघन्यता संभव है। इसलिए बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंके सिवाय उसका अन्यत्र पाया जाना संभव नहीं है। पूर्व सूत्रोक्त स्त्रीवेदादि प्रकृतियोंका जघन्य आवाधाकाल अन्तर्मुहूर्त है ॥ २५ ॥ उक्त प्रकृतियोंके आवाधाकालसे हीन जघन्य कर्मस्थितिप्रमाण उनका कर्मनिषेक होता है ॥ २६ ॥ ये दोनों सूत्र सुगम हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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