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________________ १८४ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१,९-७, ५. त्ति घेत्तव्वं । आबाधूणिया कम्मट्ठिदी कम्मणिसेगो ॥५॥ सुगममेदं । पंचदंसणावरणीय-असादावेदणीयाणं जहण्णगो विदिबंधो सागरोवमस्स तिणि सत्तभागा पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण ऊणया ॥६॥ तं जहा- सत्तरिसागरोवमकोडाकोडिट्ठिदिबंधमिच्छत्तस्स जदि एत्थ एक्कसागरोवममेत्तो उक्कस्सो द्विदिबंधो लब्भदि तो तीससागरोवम (-कोडाकोडि.) मेत्तुक्कस्सद्विदिवंधदंसणावरणादीणं किं ठिदिबंध लभामो त्ति फलगुणिदमिच्छं पमाणेणोवट्टिदे सागरोवमस्स तिणि सत्तभागा आगच्छंति । पुणो तत्थ आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तेण आवाधट्ठाण विसेसेण रूवाहिएण एगमावाधाकंडयं गुणिय रूऊणं कादण ग्रहण करना चाहिए। पूर्व सूत्रोक्त ज्ञानावरणीयादि पन्द्रह कर्मोके आवाधाकालसे हीन जघन्य कर्मस्थितिप्रमाण उनका कर्म-निषेक होता है ॥ ५ ॥ यह सूत्र सुगम है। निद्रानिद्रादि पांच दर्शनावरणीय और असातावेदनीय, इन कर्म-प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन सागरोपमके तीन बटे सात भागप्रमाण है ॥ ६॥ यह इस प्रकार है - यहांपर अर्थात् एकेन्द्रिय जीवोंमें सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपमके स्थितिबन्धवाले मिथ्यात्वकर्मका यदि एक सागरोपममात्र उत्कृष्ट स्थितिबन्ध प्राप्त होता है, तो तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपममात्र उत्कृष्ट स्थितिबन्धवाले दर्शनावरणीयादि कर्मीका क्या स्थितिबन्ध प्राप्त होगा, इस प्रकार इच्छाराशिको फलराशिसे गुणित कर प्रमाणराशिसे अपवर्तन करनेपर एक सागरोपमके सात भागों से तीन भाग आते हैं। उदाहरण- ३०४ १ ३ पुनः उसमें एक रूपसे अधिक, आवलीके असंख्यातवें भागमात्र आबाधास्थानविशेषके द्वारा एक आवाधाकांडकको गुणा करके, और उसमेंसे एक कम करके प्राप्त ३ जदि सत्तरिस्स एत्तियमेत्तं किं होदि तीसियार्दाणं । इदि संपाते सेसाणं इगिविगलेसु उभयठिदी ॥ गो. क. १४५. ......... ......... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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