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________________ १, ९-७, ४.] चूलियाए जहण्णट्ठिदीए णाणावरणादीणि [१८३ कुदो ? कसायखवयस्स चरिमसमयबंधत्तादो । एत्थ गुणहाणीओ णत्थि, पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तद्विदीए विणा गुणहाणीए असंभवादो । अंतोमुहुत्तमाबाधा ॥ ४॥ आवाधाकंडएण असंखेज्जपलिदोवमपढमवग्गमूलमत्तेण अप्पिदविदिम्हि भागे हिदे आबाधा आगच्छदि त्ति पुव्यमसई परूविदं । संपहि अंतोमुहुत्तमेत्तद्विदीए आबाहाकंडयादो असंखेज्जगुणहीणाए कधमाबाधा उवलब्भदे ? ण एस दोसो, सग-सगजादिपडिबद्धावाधाकंडएहि सग-सगहिदीसु ओवट्टिदासु सग-सगआबाधासमुप्पत्तीदो । ण च सव्वजादीसु आबाधाकंडयाणं सरिसत्तं', संखेज्जवस्सट्ठिदिबंधेसु अंतोमुहुत्तमेत्तआवाधोवट्टिदेसु संखेज्जसमयमेत्तआवाधाकंडयदंसणादो। तदो संखेज्जरूवेहि जहण्णविदिम्हि भागे हिदे संखेज्जावलियमेत्ता णिसेगट्ठिदीदो संखेज्जगुणहीणा जहण्णाबाधा होदि क्योंकि, कषायोंके क्षपण करनेवाले जीवके (दशवें गुणस्थानके) अन्तिम समयमें इस जघन्य स्थितिका बन्ध होता है। यहांपर अर्थात् इस जघन्य स्थितिमें गुणहानियां नहीं होती हैं, क्योंकि, पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र स्थितिके विना गुणहानिका होना असंभव है। पूर्व सूत्रोक्त ज्ञानावरणीयादि पन्द्रह कर्मीका जघन्य आबाधाकाल अन्तमुहूर्त है ॥ ४॥ __ शंका-पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलमात्र आबाधाकांडकसे विवक्षित स्थितिमें भाग देने पर आवाधा आजाती है, यह बात पहले अनेक वार प्ररूपण की गई है । अब, आवाधाकांडकसे असंख्यात गुणित हीन अन्तर्मुहूर्तमात्र स्थितिकी आबाधा कैसे उपलब्ध होती है ? समाधान- यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, अपनी अपनी जातियोंमें प्रतिबद्ध आवाधाकांडकोंके द्वारा अपनी अपनी स्थितियोंके अपवर्तित करनेपर अपनी अपनी, अर्थात् विवक्षित प्रकृतियोंकी, आवाधा उत्पन्न होती है। तथा, सर्व जातिवाली प्रकृतियोंमें आवाधाकांडकोंके सदृशता नहीं है, क्योंकि, संख्यात वर्षवाले स्थितिबन्धोंमें अन्तर्मुहूर्तमात्र आबाधासे अपवर्तन करनेपर संख्यात समयमात्र आवाधाकांडक उत्पन्न होते हुए देखे जाते हैं । इसलिए संख्यात रूपोंसे जघन्य स्थितिमें भाग देनेपर निषेकस्थिति से संख्यातगुणित हीन संख्यात आवलिमात्र जघन्य आबाधा होती है, यह अर्थ १ प्रतिषु सरीरत्तं ' इति पाठः। २अ-आ प्रत्योः मेवाणि सगद्विदीदो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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