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छक्खंडागमे जीवाण
[ १, ९–७, ३.
कारणं, तक्काले सादस्स वि बंधुवलंभा । ण हाणी, तिस्से वि साहारणत्तादो । किं च विसोहीओ उक्कस्सट्ठिदिम्हि थोवा होदूण गणणाएं वड्ढमाणाओ आगच्छंति जाव जहण्णडिदित्ति | संकिलेसा पुण जहण्णविहिम्हि थोवा होदूण उवरि पक्खउत्तरकमेण वड्डूमाणा' गच्छंति जा उक्कस्सट्ठिदि ति । तदो संकिलेसेहिंतो विसोहीओ पुधभूदाओ त्ति दट्ठव्त्राओ । तदोदिदं सादबंध जोग्गपरिणामो विसोहि त्ति ।
पंचहं णाणावरणीयाणं चदण्डं दंसणावरणीयाणं लोभसंजलणस्स पंचण्हमंतराइयाणं जहण्णओ ट्टिदिबंधो अंतोमुहुत्तं ॥ ३ ॥
अर्थात् कषायौकी वृद्धि के कालमें साताका बन्ध भी पाया जाता है । इसी प्रकार कषायोंकी हानि केवल साताके बन्धका कारण नहीं है, क्योंकि, वह भी साधारण है, अर्थात् कषायोंकी हानिके काल में असाताका भी बन्ध पाया जाता है ।
विशेषार्थ — पूर्वमें थोड़ी प्रकृतियोंका बन्ध होकर पश्चात् अधिक प्रकृतियों के बन्ध होनेको भुजाकार बन्ध कहते हैं। जैसे उपशांतकषाय गुणस्थानमें केवल एक सातावेदनीय कर्मका बन्ध होता है। वहांसे दशवें सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में आने पर आयु और मोहको छोड़कर शेष छह मूल प्रकृतियोंका वन्ध होने लगता है । दशवेसे नव व आठवे गुणस्थान में आने पर आयुको छोड़कर शेष सात मूल प्रकृतियोंका बन्ध होने लगता है । आठवें गुणस्थानसे नीचे आने पर आठों ही प्रकृतियोंका बन्ध संभव हो जाता है | यह भुजाकार बन्ध है । यहां पर भुजाकार बन्धके उक्त स्थानों में विशुद्धि होने पर भी कषायोंकी वृद्धि है और इसीसे वे भुजाकार बन्धस्थान संभव होते हैं । कषायोंकी वृद्धि होने पर भी वहां सातावेदनीय कर्मका बन्ध होता है । तथा कपायोंकी हानि होने पर भी छठवें गुणस्थान तक असाताका बन्ध होता रहता है । अतः कषाय- वृद्धिको संक्लेशका लक्षण नहीं माना जा सकता ।
दूसरी बात यह है कि विशुद्धियां उत्कृष्ट स्थितिमें अल्प होकर गणनाकी अपेक्षा बढ़ती हुई जघन्य स्थिति तक चली आती हैं । किन्तु संक्लेश जघन्य स्थितिमें अल्प होकर ऊपर प्रक्षेप-उत्तर क्रमसे, अर्थात् सदृश प्रचयरूपसे, बढ़ते हुए उत्कृष्ट स्थिति तक चले जाते हैं । इसलिए संक्लेशों से विशुद्धियां पृथग्भूत होती हैं, ऐसा अभिप्राय जानना चाहिए । अतएव यह स्थित हुआ कि साताके बन्धयोग्य परिणामका नाम विशुद्धि है ।
पांचों ज्ञानावरणीय, चक्षुदर्शनावरणादि चारों दर्शनावरणीय, लोभसंज्वलन और पांचों अन्तराय, इन कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३ ॥
१ तत्र काले संभवतो विशुद्धिकषायपरिणामाः असंख्यात लोकमात्राः सन्ति । ते च तत्प्रथमसमयमादि कृत्वा उपर्युपरि सर्वत्र सदृशप्रचयवृद्धया वर्धन्ते । गो. क. ८९९. टीका.
२ शेषाणामन्तर्मुहूर्ताः ॥ त. सू. ८, २०. भिण्णमुहुत्तं तु ठिदी जणयं सेसपंचन्हं ॥ गो. कं. १३९,
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