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________________ १, ९-६, ३२.] चूलियाए उक्कस्सट्टिदीए बीइंदियादीणि [१७३ एत्थ दिवड्डगुणहाणीए' किंचूणाए समयपबद्धम्हि भागे हिदे पढमणिसेओ होदि । विदियणिसेयभागहारो पुयभागहारादो सादिरेओ होदि । एवं गुणहाणिअब्भंतरसव्वणिसेयाणं भागहारा साहेयव्या । एत्थुवउज्जती गाहा - इच्छिदणिसेयभत्तो पढमाणसेयस्स भागहारो जो।। पदमणिसेथेग गुणो तहिं तहिं होइ अवहारो ॥ २ ॥ एदीए गाहाए इच्छिदणिसेगाणं भागहारो आणेदव्यो । विदियगुणहाणिपढमणिसेयस्स भागहारो किंचूगतिण्णिगुणहाणिमेत्तो । कुदो ? पढमगुणहाणिपढमणिसेयादो विदियगुणहाणिपढमणिसेयस्स अद्धत्तादो। एवमुवरिमगुणहाणिं पडि यहांपर, अर्थात् उक्त निषेक स्थिति में, कुछ कम डेढ़ गुणहानिसे समयप्रबद्ध में भाग देने पर प्रथम निषेकका प्रमाण होता है । दूसरे निषेकका भागहार पूर्व निषेकके भागहारसे सातिरेक होता है। इस प्रकार विवक्षित गुणहानिके भीतर सर्व निषेकोंके भागहार सिद्ध करना चाहिए । इस विषयमें यह उपयोगी गाथा है प्रथम निषेकका जो भागहार हो उसमें इच्छित निषेकका भाग देने तथा प्रथम निषेकसे गुणा करनेपर भिन्न भिन्न निषेकोंका भागहार उत्पन्न होता है ॥२॥ इस गाथाके द्वारा इच्छित निषेकोंका भागहार ले आना चाहिए। उदाहरण-द्रव्य = ६३००; प्रथम निषेक =५१२; प्रथम निषेकका भागहार = १५७५ (देखो सूत्र नं. ६ की टीका व विशेषार्थ)। अतः प्रस्तुत नियमके अनुसार द्वितीय निषेकका भागहार होगा- १५३.४ ४१२ = ३१४ । इस भागहारका द्रव्यमें भाग देनेसे इच्छित निषेक ४८० प्राप्त होगा। ६३० ° x ३२५ = ४८० द्वितीय निषेकका प्रमाण । इसी प्रकार अन्य निषेकोंका भागहार उत्पन्न किया जा सकता है। (देखो पृ. १५३ का विशेषार्थ) दूसरी गुणहानिके प्रथम निषेकका भागहार कुछ कम तीन गुणहानिप्रमाण है, क्योंकि, प्रथम गुणहानिके प्रथम निषेकसे दूसरी गुणहानिका प्रथम निषेक आधा होता है। विशेषार्थ-यथार्थतः दूसरी गुणहानिके प्रथम निषेकका भागहार तीन गुणहानिप्रमाणसे कुछ कम न होकर कुछ अधिक होता है । उदाहरणार्थ- १५४५४५१३=१५७५ यह दुसरी गुणहानिके प्रथम निषेकका भागहार है, क्योंकि, द्रव्य ६३०० में इसका भाग देनेपर निपेकका प्रमाण ६३०० ११४५ २५६ प्राप्त होता है। किन्तु यह भागहार २४३४ है जो तीन गुणहानि प्रमाण ८४ ३ = २४ से कुछ अधिक है। इस प्रकार उपरिम गुणहानिके प्रति भागहार दुगुण-दुगुणादि क्रमसे अन्तिम १ प्रतिषु · ओवडगुणहाणीए' इति पाठः । २ प्रतिषु 'जे' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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