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१७२ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, ९-६, ३०. बीइंदिय-तीइंदिय-चरिदिय-वामणसंठाण-खीलियसंघडणसुहम-अपजत्त-साधारणणामाणं उकस्सगो द्विदिबंधो अट्ठारससागरो. वमकोडाकोडीओ ॥ ३०॥
एदमुक्कस्सद्विदि गुणहाणीए सव्वकम्माणं पमाणेण समाणाए भागे हिदे एत्थतणणाणागुणहाणिसलागाओ उप्पज्जति । एदाहि णाणागुणहाणिसलागाहिं कम्मट्ठिदिम्हि भागे हिदे एया दुगुणवड्डी आगच्छदि । सेसं सुगर्म ।
अट्ठारसवाससदाणि आबाधा ॥ ३१ ॥
कुदो ? सागरोवमकोडाकोडीए वाससदमावाधा होदि, तं तेरासियकमेणागदअट्ठारसेहि गुणिदे अट्ठारसवाससदमेत्तआवाधुप्पत्तीदो। एदाए कम्मट्टिदिम्हि भागे हिंदे आबाधाकंडओ होदि।
आवाधूणिया कम्मट्टिदी कम्माणसेओ ॥ ३२॥
द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, बामनसंस्थान, कीलकसंहनन, सूक्ष्मनाम, अपर्याप्तनाम और साधारणनाम, इन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अट्ठारह कोडाकोड़ी सागरोपम है ॥ ३० ॥
___ इस सूत्रोक्त उत्कृष्ट स्थितिमें सर्व-कर्मों के प्रमाणसे समान गुणहानिके द्वारा भाग देनेपर यहांपरकी, अर्थात् उक्त कर्म स्थितिकी, नानागुणहानिशलाकाएं उत्पन्न हो जाती हैं । इन नानागुणहानिशलाकाओंके द्वारा कर्म-स्थितिमें भाग देनेपर एक दुगुणवृद्धि अर्थात् गुणहानि-आयामका प्रमाण आ जाता है। शेष सूत्रार्थ सुगम है।
पूर्व सत्र-कथित द्वीन्द्रियजाति आदि प्रकृतियोंका उत्कृष्ट आवाधाकाल अट्ठारह सौ वर्ष है ॥ ३१ ॥
क्योंकि, एक कोड़ाकोड़ी सागरोपमकी आवाधा सौ वर्ष होती है। उसे त्रैराशिक-क्रमसे प्राप्त अट्ठारह रूपोंसे गुणित करने पर अट्ठारह सौ वर्षप्रमाण आवाधाकालकी उत्पत्ति होती है। इस आवाधाके द्वारा कर्म-स्थितिमें भाग देनेपर आवाधाकांडकका प्रमाण उत्पन्न होता है।
उक्त कर्मोके आबाधाकालसे हीन कर्मस्थितिप्रमाण उन काँका कर्म-निषेक होता है ॥ ३२ ॥
१ अट्ठरसकोडकोडी वियलाणं सुहुमतिण्डं च । गो. क. १२६.
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