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१, ९–६, २९. ] चूलियांए उक्कस्सट्टिदीए तिरिक्ख - मणुसाउआणि
कोडितिभागादो अहिया णत्थि त्ति घेत्तव्यं । पुव्वकोडितिभागो आबाधा ॥ २७ ॥
अगाबाधाणं संभवे संते वि एत्थ पुव्वकोडितिभागो चेव आबाधा होदि, अण्णहा उक्कस्सट्ठिदीए अणुववत्चीदो इदि जाणावणङ्कं एदस्स सुत्तस्स अवयारो । सेसं सुगमं । आबाधा ॥ २८ ॥
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पुव्वकोडितिभागो आबाधा ति एदेणेव सुतेण पुव्वकोडितिभागहि बाधाभावे अवगदे संते पुणो आबाधा इदि किमहं उच्चदे ! ण, जधा णाणावरणादीणमाबाधाए अब्भंतरे ओकड्डण - उक्कड्डण- परपयडिसकमेहि णिसेयाणं बाधा होदि, तथा आउअस्स बाधा णत्थि त्ति जाणावणङ्कं पुणो आबाधापरूवणादो । कम्मादी कम्मणिसेो ॥ २९ ॥
सुगममेदं ।
आबाधा पूर्वकोटीके त्रिभागसे अधिक नहीं होती है, ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिए । तिर्यगायु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट आबाधाकाल पूर्वकोटीका त्रिभाग है ॥२७॥
अनेक आबाधा-विकल्पोंके संभव होनेपर भी यहां पूर्वकोटी त्रिभागमात्र ही आबाधा होती है यह कथन किया गया है, क्योंकि, अन्यथा उत्कृष्ट स्थिति बन नहीं सकती है, इस बात के बतलाने के लिए इस सूत्रका अवतार हुआ है । शेष सूत्रार्थ सुगम है।
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आबाधाकाल में तिर्यगायु और मनुष्यायुकी निषेक-स्थिति बाधा-रहित है ॥२८॥ शंका तिर्यगायु और मनुष्यायुकी उत्कृष्ट आवाधा पूर्वकोटीका त्रिभाग है, इस उपर्युक्त सूत्रसे ही पूर्वकोटीके त्रिभागमें बाधाका अभाव जान लेनेपर पुनः 'आबाधा' यह सूत्र किसलिए कहते हैं ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, जिस प्रकार ज्ञानावरणादि कर्मोकी आबाधाके भीतर अपकर्षण, उत्कर्षण और पर प्रकृतिसंक्रमणके द्वारा निषेकोंके बाधा होती है, उस प्रकार आयुकर्मकी बाधा नहीं होती है, यह जतलाने के लिए पूर्वसूत्रद्वारा आबाधाके कहे आनेपर भी पुनः आबाधाका प्ररूपण किया गया है ।
तिर्यगायु और मनुष्यायुकी कर्म- स्थितिप्रमाण ही उनका कर्म-निषेक होता है ॥ २९ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
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