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________________ १७०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ९-६, २६. उच्चदे-ण ताव देव-णेरइएसु बहुसागरोवमाउट्ठिदिएसु पुव्वकोडितिभागादो अधियाआपाधा अस्थि, तेसिं छम्मासावसेसे भुंजमाणाउए असंखेपद्धापज्जवसाणे संते परभवियमाउअं बंधमाणाणं तदसंभवा । ण तिरिक्ख-मणुसेसु वि तदो अहिया आवाधा अत्थि, तत्थ पुवकोडीदो अहियभवदिट्ठीए अभावा । असंखेज्जवस्साऊ तिरिक्ख-मणुसा अस्थि त्ति चे ण, तेसिं देव-णेरइयाणं व मुंजमाणाउए छम्मासादो अहिए संते परभविआउअस्स बंधाभावा । संखेज्जवस्साउआ वि तिरिक्ख-मणुसा कदलीघादेण वा अधद्विदिगलणेण वा जाव मुंजावभुत्ताउद्विदीए अद्धपमाणेण तदो हीणपमाणेण वा भुंजमाणाउअं ण कदं ताव ण परभवियमाउवं बंधति । कुदो ? पारिणामियादो। तम्हा उक्कस्साबाधा पुव्व समाधान-कहते हैं- न तो अनेक सागरोपमोंकी आयुस्थितिवाले देव और नारकियोंमें पूर्वकोटिके त्रिभागसे अधिक आबाधा होती है, क्योंकि उनकी भुज्यमान आयुके (अधिकसे अधिक) छह मास अवशेष रहनेपर (तथा कमसे कम ) असंक्षेपाद्धाकालके अवशेष रहनेपर आगामी भवसम्बन्धी आयुको बांधनेवाले उन देव और नारकियोंके पूर्वकोटिके त्रिभागसे अधिक आबाधाका होना असंभव है। न तिर्यच और मनुष्यों में भी इससे अधिक आबाधा संभव है, क्योंकि, उनमें पूर्वकोटीसे अधिक भवस्थितिका अभाव है। शंका-(भोगभूमियों में ) असंख्यात वर्षकी आयुवाले तिर्यंच और मनुष्य होते हैं, (फिर उनके पूर्वकोटीके त्रिभागसे अधिक आबाधाका होना संभव क्यों नहीं है)? समाधान नहीं, क्योंकि, उनके देव और नारकियोंके समान भुज्यमान आयुके छह माससे अधिक होनेपर पर-भवसम्बन्धी आयुके बंधका अभाव है, (अतएव पूर्वकोटिके त्रिभागसे अधिक आबाधाका होना संभव नहीं है)। तथा, संख्यात वर्षकी आयुवाले भी तिर्यंच और मनुष्य कदलीघातसे, अथवा अधःस्थितिके गलनसे, अर्थात् विना किसी व्याघातके समय समय प्रति एक एक निषेकके खिरनेसे, जब तक भुज्य और अवमुक्त आयुस्थितिमें भुक्त आयु-स्थितिके अर्धप्रमाणसे, अथवा उससे हीन प्रमाणसे भुज्यमान आयुको नहीं कर देते हैं, तबतक पर-भवसम्बन्धी आयुको नहीं बांधते हैं, क्योंकि, यह नियम पारिणामिक है। इसलिए आयुकर्मकी उत्कृष्ट १बंधंति देव-नारय असंखतिरिनर छमाससेसाऊ । परभविआउं सेसा निरुवकम तिभागसेसाऊ॥ सोवकमाउआ पुण सेसतिभागे अहव नवमभागे। सत्तावीस इमे वा अंतमुहुत्तंतिमे वावि ॥ बृहत्संग्रहणीसूत्रम् ३२७-३२८, २ अ-प्रत्योः 'अथिहिदीगलणेण' आप्रती · अस्थि ति ठिदीगलणेण' इति पाठः । मप्रतौ अदिदी गलणेण' इति पाठः। जं कम्मं जिस्से द्विदीए णिसित्तमणोकड्डिदमणुकड्डिदं तिस्से चेव हिदीए उदए दिस्सइ तमधाणिसेयट्रिदिपत्तयं । xxx जहाणिसेयसरूवेणावट्ठिदस्स विदिक्खएणोदयमागच्छंतस्स णाणासमयपबद्धसंबद्धपदेसपुंजस्त अत्थाणुगओ पयदववएसो ति मणिदं होइ । जयध. अ. प. ५२९, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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