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१६८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ९-६, २४. ण होदि त्ति जाणावणमुक्कस्साबाधाउत्तीदो ।
आबाधा ॥ २४ ॥
पुव्वुत्ताबाधाकालभंतरे णिसेयहिदीए बाधा णन्थि । जधा णाणावरणादीणं आबाधापरूवयसुत्तण बाधाभावो सिद्धो, एवमेत्थ वि सिज्झदि, किमटुं विदियवारमाबाधा उच्चदे ? ण, जधा णाणावरणादिसमयपबद्धाणं बंधावलियवदिताणं ओकड्डण-परपयडिसंकमेहि बाधा अत्थि, तधा आउअस्स ओकड्डण-परपयडिसंकमादीहि बाधाभावपरूवणटुं विदियवारमाबाधाणिसादो।
कम्मट्टिदी कम्मणिसेओ ॥२५॥
आवाधूणिया कम्मट्ठिदी कम्मणिसेगो ति किमट्ठमेत्थ ण परूविदं ? उत्कृष्ट आबाधाकालका अविनाभावी संबंध नहीं है, जैसा कि अन्य कर्मोका है। तथापि आयुकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति तो तभी जानी जा सकती है जब उत्कृष्ट आवाधाके साथ उत्कृष्ट निषेकस्थितिका योग किया जाय । इसीलिये इन दोनों उत्कृष्ट स्थितियों का मेल करना आवश्यक है।
आवाधाकालमें नारकायु और देवायुकी निषेक स्थिति बाधा-रहित है ॥ २४ ॥
पूर्व सूत्रोक्त आवाधा-कालके भीतर विवक्षित किसी भी आयुकर्म की निषेकस्थितिमें बाधा नहीं होती है ।
शंका-जिस प्रकार ज्ञानावरणादि कर्मोकी आवाधाका प्ररूपण करनेवाले सूत्रसे बाधाका अभाव सिद्ध है, उसी प्रकार यहांपर भी बाधाका अभाव सिद्ध होता है, फिर दूसरी बार 'आवाधा' यह सूत्र किसलिए कहा है ?
समाधान-- नहीं, क्योंकि, जिस प्रकार बंधावलि-व्यतिक्रान्त अर्थात् जिनका बंध होनेपर एक आवलीप्रमाण काल व्यतीत हो गया है, ऐसे ज्ञानावरणादि कौके समयप्रवद्धोंके अपकर्षण और पर प्रकृति संक्रमणके द्वारा वाधा होती है, उस प्रकार
कर्मके आवाधाकालके पूर्ण होनेतक अपकर्षण और पर-प्रकृति-संक्रमण आदिके द्वारा बाधाका अभाव है, अर्थात् आगामी भवसम्बन्धी आयुकर्मकी निषेकस्थितिमें कोई व्याघात नहीं होता है, इस यातके प्ररूपण करनेके लिए दूसरी वार 'आवाधा' इस सूत्रका निर्देश किया है।
नारकायु और देवायुकी कर्म-स्थितिप्रमाण उन कर्मोंका कर्म-निपेक होता है ॥ २५ ॥
शंका-यहांपर 'आवाधा कालसे रहित कर्मस्थिति ही उन कर्मोंकी निषेकस्थिति है' इस प्रकार प्ररूपण किसलिए नहीं किया ?
१ आउस्स णिसेगो पुण सगढ़िदी होदि णियमेण । गो. क. १६०.
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