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१, ९-६, २३.] चूलियाए उक्कस्सहिदीए णिरय-देवाउआणि कादूण जाव असंखेपद्धा त्ति एदेसु आवाधावियप्पेसु देव-णेरइयाणं आउअस्स उक्कस्सणिसेयहिदी संभवदि त्ति उत्तं होदि।
पुवकोडितिभागो आबाधा ॥ २३ ॥
पुवकोडितिभागमादि कादूण जाव असंखेपद्धा त्ति । जदि एदे आबाधावियप्पा आउअस्स सव्वणिसेयहिदीसु होति, तो पुवकोडितिभागो चेव उक्कस्सणिसेयहिदीए किमटुं उच्चदे ? ण, उक्कस्साबाधाए विणा उक्कस्सणिसेयहिदीए चेव उक्कस्सहिदी जिससे छोटा (संक्षिप्त) कोई काल न हो, ऐसे आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक जितने आबाधाकालके विकल्प होते हैं, उनमें देव और नारकियोंके आयुकी उत्कृष्ट निषेक स्थिति संभव है।
विशेषार्थ- देवायुका बंध मनुष्य या तिर्यंच गतिमें ही हो सकता है, नरक या देवगतिमें नहीं। और आगामी आयुका बंध शीघ्रसे शीघ्र भुज्यमान आयुके । भाग व्यतीत होनेपर तथा अधिकसे अधिक मृत्युके पूर्व होता है। कर्मभूमिज मनुष्य या तिर्यचकी उत्कृष्ट आयु एक कोटिपूर्व वर्ष की है । अतएव देवायुका बंध भुज्यमान आयुके ३ भाग शेष रहनेपर हो सकता है और यही काल देवायुके स्थितिबंधका उत्कृष्ट आबाधाकाल होगा। मरते समय ही आयका बंध होनेसे असंक्षेप-अद्धारूप जघन्य आबाधाकाल प्राप्त होता है। इन दोनों मर्यादाओंके बीच देवायुकी आबाधाके मध्यम विकल्प संभव हैं। भोगभूमिज प्राणियोंके आगामी आयुका बंध आयुके केवल ६ मास तथा अन्यमतानुसार ९ मास, शेष रहनेपर होता है।
__नारकायु और देवायुका उत्कृष्ट आवाधाकाल पूर्वकोटिवर्षका त्रिभाग ( तीसरा भाग) है ॥२३॥
पूर्वकोटिके त्रिभागसे लेकर असंक्षेपाद्धा पर्यंत आवाधाका प्रमाण होता है, ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिए।
शंका-यदि पूर्वकोटी वर्षके त्रिभागको आदि करके असंक्षेपाचा काल तक संभव सब आवाधाके भेद आयुकर्मकी सर्व निषेक-स्थितियों में होते हैं, तो पूर्वकोटी वर्षके त्रिभागप्रमाण ही यह उत्कृष्ट आबाधाकाल उत्कृष्ट निषेक-स्थितिमें किसलिए कहते हैं ?
समाधान नहीं, क्योंकि, उत्कृष्ट आवाधाकालके विना उत्कृष्ट निषेक-स्थितिसंबंधी उत्कृष्ट कर्म-स्थिति प्राप्त नहीं होती है, यह बात बतलानेके लिए यह उत्कृष्ट आबाधाकाल कहा गया है। अर्थात् यद्यपि आयुकर्मके संबंधमें उत्कृष्ट निषेकस्थिति और
१जहण्णओ आउअबंधकालो जहण्णविस्समणकालपुरस्सरो असंखेपद्धा णाम । धवला. अ.प्र.प. १३४१. न विद्यते अस्मादन्यः संक्षेपः असंक्षेपः, स चासौ अद्धा च असंक्षेपाद्वा आवल्यसंख्येयमागमात्रत्वात् । गो. क. जी. प्र. टी. १५८.
२ पुव्वाणं कोडितिभागादासंखेप अद्ध वोत्ति हवे । आउस्स य आवाहा ण हिदिपडिभागमाउस्स ॥ गो. क. १५८.
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