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छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ९-६, २२. एत्थ वेण्णिवाससहस्सूर्णकम्मट्टिदिगुणहाणीसु पक्खेवसंक्खेवत्थसुत्तादो पुव्वं व पदेसरयणं कादव्वं । सेसं सुगमं ।
णिरयाउ-देवाउअस्स उक्कस्सओ ट्ठिदिबंधो तेत्तीसं सागरोवमाणि ॥ २२ ॥
एसा देव-णेरइयाणं आउअस्स उक्कस्सणिसेयहिदी । कुदो ? देव-णेरइएसु सम्माइद्वि-मिच्छाइट्ठीणं गुणद्विदीए सुत्ते तेत्तीससागरोवमपमाणणिदेसादो । किमट्ठमेत्थ णिरयदेवाउआणमुक्कस्सट्ठिदिपरूवणाए आबाहाए सह उक्कस्सणिसेयहिदी ण उत्ता ? ण, एत्थ णिसेयविदिमणवेक्खिय आबाधापउत्ती होदि त्ति परूवणफलत्ता। जधा णाणावरणादीणमाबाधा णिसेयट्ठिदिपरतंता, एवमाउअस्स आबाधा णिसेयहिदी अण्णोण्णायत्ताओ ण होति ति जाणावणटुं णिसयट्टिदी चेव परूविदा। पुवकोडितिभागमादि
यहांपर दो हजार वर्षप्रमाण आबाधाकालसे हीन कर्मस्थितिकी गुणहानियों में 'प्रक्षेपकसंक्षेपेण' इत्यादि करणसूत्रके अनुसार पूर्वके समान प्रदेश-रचना करना चाहिए। शेष सूत्रार्थ सुगम है।।
नारकायु और देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तेतसि सागरोपम है ॥ २२ ॥
यह देव और नारकियोंके आयुकी उत्कृष्ट निषेक स्थिति है, क्योंकि, देव और नारकियोंमें यथाक्रमसे सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि जीवोंकी गुणस्थानसम्बन्धी स्थितिका सूत्रमें अर्थात् कालानुयोगद्वारसूत्रमें तेतीस सागरोपमप्रमाण निर्देश किया गया है।
शंका-यहांपर नारकायु और देवायुकी उत्कृष्ट स्थिति-प्ररूपणामें आवाधाके साथ उत्कृष्ट निषेक-स्थिति किसलिए नहीं कही?
समाधान-नहीं, क्योंकि, यहांपर अर्थात् आयुकर्मकी स्थितिमें निषेकस्थितिकी अपेक्षा न करके आबाधाकी प्रवृत्ति होती है, इस बातका प्ररूपण करना ही उत्कृष्ट स्थिति-प्ररूपणामें आवाधाके साथ उत्कृष्ट निषेकस्थिति न कहनेका फल है । जिस प्रकार शानावरणादि कर्मोंकी आबाधा निषेक-स्थितिके परतंत्र है, उस प्रकार आयुकर्मकी बाबाधा और निषेक-स्थिति परस्पर एक दूसरेके आधीन नहीं हैं, यह बात बतलानेके लिए यहांपर आयुकर्मकी निषेक-स्थिति ही प्ररूपण की गई है । इसका यह अर्थ होता है कि पूर्वकोटी वर्षके त्रिभाग अर्थात् तीसरे भागको आदि करके असंक्षेपाद्धा अर्थात्
१ प्रतिषु 'वाससहस्साण-' इति पाठः। २ त्रयसिंशत्सागरोपमाण्यायुषः ॥ त.सू. ८, १७. सुरणिरयाऊणोघं ॥ गो. क. १३३. १ अप्रती देवाण' आप्रती देवाऊण' इति पाठः। ४ प्रतिषु '-माणावरगामानाचा' इति पाठः।
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