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१, ९-३, २१. ]
चूलियाए उकस्सट्ठिदीए उस वेदादणि
[ १६५
समाणाए अप्पिदुक्कस्सट्ठिदिम्हि भागे हिदे णाणादुगुणहाणिसलागा होंति । णाणाद्गुणहाणिस लागाहि अप्पिदकम्मट्ठिदिम्हि भागे हिदे गुणहाणी होदि । रुवूण-दुरूऊणादिकम्मद्विदी अवसाणगुणहाणी विकला होदि । तत्थ णादूग णाणागुणहाणिसला गाओ वत्तव्वाओ |
वेवासहस्साणि आबाधा ॥ २० ॥
एत्थ तेरासियं काऊण आबाधा आबाधाकंडयाणि च आणदव्वाणि । आबाधावड्डि हाणिट्ठाणं अवट्ठिदाबाधाएं द्विदीणमद्वाणं च पुत्रं व परूवेदव्वं । आबाधूर्णिया कम्मट्टी कम्मणिसेो ॥ २१ ॥
गुणहानिका विवक्षित उत्कृष्ट स्थितिमें भाग देनेपर नानादुगुणहानिशलाकाएं उत्पन्न होती हैं । नानादुगुणहानिशलाकाओंके द्वारा विवक्षित कर्मस्थितिम भाग देने पर गुणहानिका प्रमाण आता है। एक समय कम, दो समय कम आदि कर्मस्थितियों में अन्तिम गुणानि विकल अर्थात् उत्तरोत्तर हीन होती है। यहांपर जानकर नानागुणहानिशलाकाएं कहना चाहिए, अर्थात् कर्मनिषेकका विवरण करना चाहिए ।
उदाहरण -- मान लो यहां उत्कृष्टस्थिति = ४८; आवाधाकाल = १६, और गुण
४८ - १६ ३२ ८ ૮
हानि आयाम = ८ है । तो नानागुणहानियोंका प्रमाण होगा यदि कर्मस्थिति १ कम हुई तो नानागुणहानियां हुई ? अर्थात् तीन गुणहानियोंका आयाम तो ८ ही रहेगा, किन्तु अन्तिम गुणहानिका आयाम ७ होगा । यदि कर्मस्थिति २ कम हुई तो अन्तिम गुणहानि-आयाम ६ रह जायगा । इसी क्रमसे जितनी स्थिति कम होगी उसी प्रमाणसे अन्तिम गुणहानि हीन होती जायगी ।
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नपुंसकवेदादि पूर्वसूत्रोक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट कर्म-स्थितिका आधाधाकाल दो हजार वर्ष है || २० ॥
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= ४. अब
यहांपर त्रैराशिक करके आवाधा और आबाधाकांडकों को ले आना चाहिए । आवाधाके वृद्धि और हानिसम्बन्धी स्थान, तथा अवस्थित आबाधाके होनेपर स्थितियोंके आयामका प्रमाण पूर्वके समान प्ररूपण करना चाहिए । (देखो सूत्र ५ का विशेषार्थ ) ।
नपुंसकवेदादि पूर्वसूत्रोक्त प्रकृतियोंके आबाधाकालसे हीन कर्म-स्थितिप्रमाण उनका कर्म-निषेक होता है ॥ २१ ॥
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