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छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, ९-६, १९.
संठाण - ओरालिय- वेडव्वियसरीरअंगोवंग - असंपत्तसेवट्टसंघडण --वण्ण-गंध-रस- फास निरयगादि-तिरिक्खगदिपाओग्गाणुपुब्बी अगुरुअलहुअउवघाद-परघाद- उस्सास- आदाव उज्जोव-अप्पसत्थविहायगदि-तस थावरबादर-पत्त- पत्तेयसरीर अथिर-असुभ- दुब्भग- दुस्सर' - अणादेज्ज-अजसकित्तिणिमिणणीचागोदाणं उक्कस्सगो हिदिबंधो वीसं सागरोवमatrista || १९ ॥
कुदो ? पडिविसेसादो । ण च सच्चाई कज्जाई एयंतेण बज्झत्थमवेक्खिय चे उप्पज्जंति, सालिबीजादो जवंकुरम्स वि उपपत्तिप्पसंगा । ण च तारिसाई दव्वाई तिसु विकले कपि अस्थि, जेसिं बलेण सालिबीजस्स जव कुरुप्पायणसत्ती होज्ज, अणवत्थापसंगादो । तम्हा कम्हि वि अंतरंगकारणादो चेव कज्जुप्पत्ती होदिति णिच्छओ कायव्वो । गुणहाणए असंखेज्जपलिदोवमपढमवग्गमूलमेत्ताए सव्वकम्माणं हुंडसंस्थान, औदारिकशरीर - अंगोपांग, वैक्रियिकशरीर- अंगोपांग, असंप्राप्तासृपाटिकासंहनन, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्रास, आताप, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकीर्त्ति, निर्माण, और नीचगोत्र, इन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध वीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम है ॥ १९ ॥
क्योंकि, प्रकृतिविशेष होनेसे इन सूत्रोक्त प्रकृतियोंका यह स्थितिबन्ध होता है । सभी कार्य एकान्तसे वाह्य अर्थकी अपेक्षा करके ही नहीं उत्पन्न होते हैं, अन्यथा शालि-धान्यके वीजसे जौके अंकुरकी भी उत्पत्तिका प्रसंग प्राप्त होगा । किन्तु उस प्रकारके द्रव्य तीनों ही कालों में किसी भी क्षेत्र में नहीं हैं कि जिनके बलसे शालि - धान्यके बीजके जौके अंकुरको उत्पन्न करनेकी शक्ति हो सके । यदि ऐसा होने लगेगा तो अनवस्था दोष प्राप्त होगा । इसलिए कहीं पर भी अन्तरंग कारणसे ही कार्यकी उत्पत्ति होती है, ऐसा निश्चय करना चाहिए ।
पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलमात्र एवं सर्व कर्मोंकी समान प्रमाणवाली
१ प्रतिषु ' अथिरअसुभगदुस्सर' इति पाठः
२ विंशतिर्नामगोत्रयोः ॥ त. सू. ८, १६. अरदीसोगे संढे तिरिक्खभयणिरयते जुरालदुगे । वेगुव्वादावदुगे णीचे तसवण्णअगुरुतिचउक्के ॥ इगिपंचिंदियथावरणिमिणासग्गमणअथिरकाणं । वीस कोडाको डीसागरणामाणमुकस्सं ॥ गो. क. १३०-१३१. ३ प्रतिषु ' पंचाई ' इति पाठः ।
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