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१, ५-६, १८.] चूलियाए उक्कस्सट्ठिदीए णउसयवेदादीणि [१६३ आदेज-जसकित्ति-उच्चागोदाणं उक्कस्सगो द्विदिबंधो दससागरोवमकोडाकोडीओ ॥ १६ ॥
कुदो ? पयडिविसेसादो । एत्थ णाणागुणहाणिसलागाणं गुणहाणीए च' पमाणं तेरासिएण आणेदृण सोदाराणं पबोहो कायव्यो ।
दसवाससदाणि आबाधा ॥ १७ ॥ सुगममेदं । आबाधूणिया कम्मट्टिदी कम्मणिसेओ ॥ १८ ॥ एदं पि सुगमं ।
णउंसयवेद-अरदि-सोग-भय-दुगुंछा णिरयगदी तिरिक्खगदी एइंदिय-पंचिंदियजादि-ओरालिय-वेउव्विय--तेजा-कम्मइयसरीर-हुंड-- कीर्ति और उच्चगोत्र, इन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध दश कोडाकोड़ी सागरोपम है ॥ १६ ॥
क्योंकि, प्रकृतिविशेष होनेसे उनका उक्त स्थितिबन्ध होता है । यहांपर नानागुणहानिशलाकाओंका और गुणहानिका प्रमाण त्रैराशिकविधिसे लाकर श्रोताओंको समझाना चाहिए।
उदाहरण-७० को. को. सा. स्थितिवाले मिथ्यात्व कर्मकी नानागुणहानिशलाकाएं यदि १४ होती हैं, तो १० को. को. सा. स्थितिवाले पुरुषवेद आदि कर्मोंकी ना. गु. हा. शलाकाएं कितनी होंगी-००० = २. अब हम यदि यहां उत्कृष्ट स्थितिको १६ मान लें तो एक गुणहानिका प्रमाण १६ = ८ आजाता है।
पुरुषवेद आदि उक्त कर्मप्रकृतियोंकी आबाधा दश सौ वर्ष है ।। १७ ॥ यह सूत्र सुगम है।
उक्त प्रकृतियोंके आवाधाकालसे हीन कर्मस्थितिप्रमाण उनका कर्म-निषेक होता है ॥१८॥
यह सूत्र भी सुगम है।
नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, नरकगति, तिर्यग्गति, एकेन्द्रियजाति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर,
१ हस्सरदिउञ्चपुरिसे थिरछक्के सत्थगमणदेवदुगे । तस्सद्धं । गो. क. १३२. २ प्रतिषु 'गुणहाणि एव' इति पाठः ।
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