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________________ १६२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ९-६, ११. कुदो ? चारित्तमोहणीयत्तादो । मोहणीयत्तं पडि सामण्णत्तादो मिच्छत्तट्ठिदिसमाणा कसायट्टिदी किण्ण संजादा ? ण, सम्मत्त-चारित्ताणं भेदेण भेदमुवगदकम्माणं पि समाणत्तविरोहादो। चत्तारि वाससहस्साणि आबाधा ॥ १४ ॥ तं जहा- सत्तरिसागरोवमकोडाकोडमेितद्विदीए जदि सत्तवाससहस्समेत्ता आवाहा लब्भदि तो चालीससागरोवमकोडाकोडीमेत्तहिदीए किं लभदि त्ति फलेण इच्छं गुणिय पमाणेण भागे हिदे चत्तारि वाससहस्साणि आबाधा लभदि । आवाधूणिया कम्मट्ठिदी कम्मणिसेगो ॥ १५ ॥ सुगममेदं । पुरिसवेद-हस्स-रदि-देवगदि-समचउरससंठाण-वजरिसहसंघडणदेवगदिपाओग्गाणुपुव्वी-पसत्थविहायगदि-थिर-सुभ-सुभग-सुस्सर क्योंकि, ये सोलहों कषाय चारित्रमोहनीय अर्थात् सम्यक्चारित्र गुणको घात करनेवाले हैं। शंका-मोहनीयत्वकी अपेक्षा समान होनेसे मिथ्यात्वकर्मकी स्थितिके समान ही कषायोंकी स्थिति क्यों नहीं हुई ? समाधान-नहीं, क्योंकि, सम्यक्त्व और चारित्रके भेदसे भेदको प्राप्त हुए कौके भी समानता होनेका विरोध है। अनन्तानुबन्धी आदि सोलहों कषायोंका उत्कृष्ट आबाधाकाल चार हजार वर्ष है ॥ १४ ॥ वह इस प्रकार है -- सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमाण कर्म स्थितिकी यदि सात हजार वर्षप्रमाण आबाधा प्राप्त होती है, तो चालीस कोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमाण कर्म-स्थितिकी कितनी आबाधा प्राप्त होगी, इस प्रकार फलराशिके द्वारा इच्छाराशिको गुणित करके प्रमाणराशिसे भाग देनेपर चार हजार वर्षप्रमाण आबाधा प्राप्त होती है। ४०४ ७००० । ७० - ४००० वर्ष. सोलहों कषायोंके आबाधाकालसे हीन कर्म-स्थितिप्रमाण उनका कर्म-निषेक होता है ॥ १५॥ यह सूत्र सुगम है। पुरुषवेद, हास्य, रति, देवगति, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रवृषभनाराचसंहनन, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, प्रशस्तविहायोगति, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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