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१, ९-६, १३.] चूलियाए उक्स्प्तहिदीए सोलसकसाया
[१६१ उक्कस्सद्विदीदो जाव समऊणावाधाकंडयं ऊणं होदि ताव सा चे उक्कस्साबाधा । आवाधाकंडएणूणउक्कस्सट्ठिदीए पुण समऊणा सत्तवाससहस्साणि आवाधा होदि । एवमेसा चेव आबाधा अवट्ठिदा होदूण गच्छदि जाव अबरेगं समऊणाबाधाकंडयमाणं जाद ति । एवं हेट्ठा वि जाणिदूण वत्तव्यं ।।
आवाधूणिया कम्मट्ठिदी कम्मणिसेगो ॥ १२ ॥ सुगममेदं ।
सोलसण्हं कसायाणं उक्कस्सगो द्विदिवंधो चत्तालीसं सागरोवमकोडाकोडीओ ॥ १३॥
विशेषार्थ- पृष्ठ १४९ पर उत्कृष्ट स्थितिमें उत्कृष्ट आबाधाका भाग देकर आबाधाकांडक निकालनेकी विधि उदाहरण देकर बतला आये हैं। चूंकि उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट आवाधाका अनुपात एक कोड़ाकोड़ी सागरकी स्थिति पर सौ वर्ष की आबाधा निश्चित है, अतएव जिस प्रमाणमें उत्कृष्ट स्थिति बढ़ेगी उसीके अनुरूप उसका आबाधाकाल भी बढ़ेगा और फलतः भजनफल अर्थात् आबाधाकांडकका प्रमाण चही रहेगा।
उदाहरण- उत्कृष्ट स्थिति ३० समय और आवाधा काल ३ समय कल्पित करके आवाधाकांडक ३ = १० आता है। उसी प्रकार ७० समयकी उत्कृष्ट स्थिति और तदनुरूप ७ समयकी आवाधा कल्पित करके भी आवाधाकांडकका प्रमाण ७=१० ही आवेगा।
उत्कृष्ट स्थितिमेंसे (एक समय कम, दो समय कम, आदिके क्रमसे) जब तक एक समय-हीन आवाधाकांडक कम होता है तब तक वही उत्कृष्ट आबाधा होती है। किन्तु एक आवाधाकांडकसे हीन उत्कृष्ट स्थितिकी आबाधा एक समय कम सात हजार वर्ष होती है । इस प्रकार यही आवाधा अवस्थित होकर तब तक जाती है, जब तक कि एक और दूसरा एक समय कम आवाधाकांडकका प्रमाण प्राप्त होता है । इसी प्रकार नीचे भी जान करके आबाधाका प्रमाण कहना चाहिए।
मिथ्यात्वकर्मके आवाधाकालसे हनि कर्म-स्थितिप्रमाण उसका कर्म-निषेक होता है ॥ १२ ॥
यह सूत्र सुगम है।
अनन्तानुबन्धी आदि सोलह कषायोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध चालीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम है ॥ १३ ॥
१ चरित्तमोहे य चत्तालं ॥ गो. क. १२८,
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