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१, ९-६, ६.] चूलियाए उक्कस्सहिदीए णाणावरणादीणि [ १५५ णिसेयाहियारे णिसेगट्ठिदीए चेव कम्मट्ठिदि त्ति ववहारदसणादो, कम्मपदेसा चिट्ठति एत्थ इदि द्विदिसद्दउप्पत्तिअवलंबमाणादो वा । तेण णाणागुणहाणिसलागाहि कम्मद्विदीए ओवट्टिदाए एगगुणहाणिमद्धाणं आगच्छदि त्ति जं पुयाइरियवक्खाणं तण्ण विरुज्झदे । संपुण्णाए कम्मट्टिदीए णाणागुणहाणिसलागाहि ओवट्टिदाए एगगुणहाणिअद्धाणमागच्छदि त्ति किण्ण घेप्पदे ? ण, तिण्हं वाससहस्साणं णिसेगट्ठिदीसु असंताणं फलभावेण मज्झिमरासिम्हि पवेसाणुववत्तीदो । तम्हा णिसेगहिदि चेव कम्मट्ठिदि त्ति घेत्तूण एयगुणहाणिअद्धाणं साहेयव्वं ।
निषेकके अधिकारमें निषेक स्थितिमें ही कर्म-स्थितिका व्यवहार देखा जाता है । अथवा, 'कर्म प्रदेश जिसमें ठहरते हैं। इस प्रकार स्थिति शब्दकी व्युत्पत्तिके अवलम्बन करनेसे भी निषेक स्थितिको कर्म स्थिति कहना बन जाता है । अतएव 'नाना-गुणहानिशलाकाओंसे कर्म-स्थितिके अपवर्तित करनेपर एक गुणहानिका अध्वान (आयाम) आता है' इस प्रकार जो पूर्वाचार्योंका व्याख्यान है, वह भी विरोधको नहीं प्राप्त होता है।
शंका-'सम्पूर्ण कर्म-स्थितिको नाना-गुणहानिशलाकाओंसे अपवर्तित करनेपर एक गुणहानिका आयाम आता है ' ऐसा क्यों नहीं मान लेते हैं ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, फल देनेकी अपेक्षा निषेक स्थितियों में अविद्यमान तीन हजार वर्षांका मध्यम राशिमें, अर्थात् भज्यमान राशिमें, प्रवेश नहीं हो सकता। इसलिए निषेक-स्थितिको ही कर्म-स्थिति मानकर एक गुणहानिका आयाम सिद्ध करना चाहिए।
विशेषार्थ-यहां सूत्रकारने निषेकोंके स्थिति-भेदोंको उत्पन्न करनेके पहले निषेक स्थितिका निर्णय किया है कि उत्कृष्ट स्थितिमेंसे आबाधाकालको घटा देनेपर निषेक स्थिति शेष रह जाती है। इस निषेक-कालमें धवलाकारने गुणहानियों आदिके द्वारा निषेक स्थितियोंका निर्णय किया है। यहां प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि दूसरे आचार्योंने तो कर्म-स्थिति और निषेक स्थितिका भेद न करके कर्म-स्थितिमें ही नानागुणहानियोंका भाग देकर गुणहानि-आयाम उत्पन्न करनेका उपदेश दिया है। अतएव प्रस्तुत उपदेशका उक्त व्याख्यानसे विरोध उत्पन्न होता है ? इसका समाधान धवलाकारने इस प्रकार किया है कि पूर्व आचार्योंका भी वहां कर्मस्थितिसे अभिप्राय इसी निषेक-कालसे रहा है, क्योंकि, निषेक अधिकारमें निषेकस्थितिके लिए ही कर्मस्थिति शब्दका व्यवहार देखा जाता है । आवाधाकालको पृथक् किये विना कर्मस्थितिमें नानागुणहानियोंका भाग तो दिया ही नहीं जा सकता, क्योंकि, आबाधाकालमें तो निषेकरचना होती ही नहीं है, और इसलिए उस कालको शामिल करनेकी कोई सार्थकता नहीं । इस प्रकार पूर्वाचार्योंके उपदेशसे भी कोई विरोध नहीं आता और निषेक-रचनाके गणितमें भी कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती।
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