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१, ९-६, ६.] चूलियाए उकस्सहिदीए णाणावरणादीणि
[ १५३ गुणहाणि पडि अद्धद्धकमेण गोवुच्छविसेसाणं गमणुवलंभा । तं हि अवट्ठिदेण णिसेगभागहारेण दोगुणहाणिपमाणेण विहज्जमाणपढमणिसेयाणमद्धद्धत्तुवलंभादो णव्वदे । एवमागददेसूणदिवड्गुणहाणीए संदिट्ठीए पणुवीसरूवूणसोलहसदाणं अट्ठावीससदभागमेत्ताए १५५ समयपबद्धे भागे (हिदे ) पढमणिसेओ आगच्छदि । एवं सव्वणिसेयाणं भागहारो जाणिय उप्पादेदव्यो ।
आधेके आधे, इत्यादि क्रमसे गोपुच्छा-विशेषोंका गमन पाया जाता है। यह बात भी दोगुणहानिप्रमाण अवस्थित निषेकभागहारसे विभज्यमान प्रथम निषेकोंके उत्तरोत्तर आधे आधे प्रमाण पाये जानेसे जानी जाती है। इस प्रकार आये हुए देशोन डेढ़ गुणहानिके प्रमाणसे, जो कि संदृष्टिमें पच्चीससे कम सोलह सौके एक सौ अट्ठाईसवें भागमात्र होता है, उससे समयप्रबद्धमें भाग देनेपर (पांच सौ बारह ५१२ संख्याप्रमाण) प्रथम निषेक आता है।
इस प्रकार सर्व निषेकोंके भागहार जान करके उत्पन्न करना चाहिए।
उदाहरण-द्रव्य ६३००; भागहार १३५५ । ६३००४ १५२७८ = ५१२. यह प्रथमनिषेकका प्रमाण है। डेढ़ गुणहाणिका प्रमाण यथार्थतः ८+४= १२ होता है। पर संदृष्टिमें जो भागहार बतलाया है वह डेढ़ गुणहानिसे अधिक होता है-१२२८५ १२ २३८ तो भी इसे डेढ़ गुणहानिसे कुछ अधिक ( देसाहिय ) न कहकर कुछ कम (देसूण) कहा है। आगे भी यही बात पायी जाती है। किन्तु अभिप्राय स्पष्ट है ।
विशेषार्थ-आगे सूत्र नं. ३२ की टीकामें उद्धत गाथाके द्वारा द्वितीयादि निषेकोंके भागहार उत्पन्न करनेकीरीति यह बतलाई गयी है कि प्रथम निषेकके भागहारमें इच्छित निषेकका भाग और प्रथम निषेकका गुणा करनेसे इच्छित निषेकका भागहार निकल आता हैं । इस नियमके अनुसार प्रथम गुणहानिके द्वितीयादि सात निषकोंके भागहार निम्न प्रकार हुए- १५७५ X ५१२, १५७५ ४५१२, १५७५ x ५१३,
१५७५५१२. १५७५ हद X ४, २३८ ॥ ३५॥
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किन्तु इस नियमके अनुसार अभीष्ट निषेकका भागहार उत्पन्न करनेके लिए उस निषेकका प्रमाण पहलेसे ही ज्ञात होना चाहिये।
१ आबाहं बोलाविय पढमणिसेगम्मि देय बहुगं तु । तत्तो विसेसहीणं विदियस्सादिमणिसेओ ति ॥ विदिये बिदियणिसेगे हाणी पुव्विल्लहाणिअद्धं तु। एवं गुणहाणिं पडि हाणी अद्धद्वयं होदि ॥ गो.क.१६१-१६२. तथा ९२.-९२१.
२ दोगुणहाणिपमाणं णिसे यहारो दु होइ ॥ गो. क. ९२८. ३ प्रतिषु ' - उवड.' इति पाठः।
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