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षट्खंडागमकी पस्तावना
पुस्तक ५, पृ. ४० १५ शंका-सूत्र ४५ की टीकामें पंचेन्द्रिय तिर्यंच सासादोंका ही उत्कृष्ट अन्तर क्यों कहा, पंचेन्द्रिय पर्याप्त और योनिमती तिर्यंच सासादनोंका क्यों नहीं कहा ?
(नेमीचंद रतनचंदजी, सहारनपुर) समाधान-पृष्ट ४० के अन्तमें व ४१ के आदिमें टीकाकारने पंचेन्द्रिय पर्याप्त व योनिमतियोंका भी निर्देश किया है एवं उपर्युक्त कथनसे जो विशेषता है वह बतलाई है।
पुस्तक ५, पृ. ५१-५५ १६. शंका-यहां मनुष्यनियोंमें संयतासंयतादि उपशान्तकषायान्त गुणस्थानोंका जो अन्तर कहा गया है वह द्रव्य स्त्रीकी अपेक्षासे कहा गया है या भाव स्त्रीकी ?
( नेमीचंद रतनचंदजी, सहारनपुर ) समाधान—इसका कुछ समाधान पुस्तक ३, पृ. २८-३० ( प्रस्तावना ) में किया गया है । पर यह समस्त विषय विचारणीय है । इसकी शास्त्रीय चर्चा जैन पत्रों में चलाई है ।
(देखो जैन संदेश, ता. ११-११-४३ आदि)
. पुस्तक ५, पृ. ६२ १७. शंका-सूत्र ९४ की टीकामें भवनवासी आदि देव सासादनोंके अन्तरको ओघके समान कहकर उनके उत्कृष्ट अन्तरमें दो समय और छह अन्तर्मुहूर्तोसे कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण अन्तरकी ओघसे समानता बतलाई है। परन्तु ओघ-निरूपणमें वनिस्वत दोके तीन समयोंको कम किया गया है । इस विरोधकी संगति किस प्रकार बैठायी जाय ?
(नेमीचंद रतनचंदजी, सहारनपुर) समाधान-सूत्र नं. ९० की टीकामें यद्यपि प्रतियोंमें 'तिहि समएहि ' पाठ है, पर विचार करनेसे जान पड़ता है कि वहां 'वेहि समएहि ' पाठ होना चाहिये, क्योंकि ऊपर जो व्यवस्था बतलाई है उसमें दो ही समय कम किये जाने का विधान ज्ञात होता है । अतएव सूत्र ९४ की टीकामें जो दो समय कम करनेका आदेश है वही ठीक जान पड़ता है।
पुस्तक ५, पृ. ७३ १८. शंका-यहाँ अन्तरानुगममें सूत्र १२१, १८६, २०० और २८८ की टीकामें क्रमशः तीन पक्ष तीन दिन व अन्तर्मुहूर्त, दो मास व दिवसपृथक्त्व, दो मास व दिवसपृथक्त्व, तथा तीन पक्ष तीन दिन व अन्तर्मुहूर्तसे गर्भज जीवको संयतासंयत गुणस्थानमें प्राप्त कराया है। क्या गर्भके दिन घट बढ़ भी सकते हैं ! (नेमीचंद रतनचंदजी, सहारनपुर )
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