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शंका-समाधान किया गया है, और सातवीं पृथिवीसे सम्यक्त्व सहित निर्गमन होना संभव ही नहीं है। दूसरे क्षयोपशम सम्यक्त्व तभी प्राप्त किया जा सकता है जब सम्यक्त्व प्रकृतिका सर्वथा उद्वेलन नहीं हो पाया, और उसकी सता शेष है । अतएव क्षयोपशम सम्यक्त्वके स्वीकार करनेमें उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमका असंख्यातवां भागमात्र काल ही प्राप्त हो सकता है। किन्तु उपशम सम्यक्त्व तभी प्राप्त हो सकता है जब सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियोंकी उद्वेलना पूरी हो चुकती है । अतएव उपशम सम्यक्त्व प्राप्त करानेसे ही उक्त कुछ अन्तर्मुहूर्तोको छोड़ शेष आयुकालप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त हो सकता है; क्षयोपशम सम्यक्त्व प्राप्त करानेसे नहीं हो सकता।
पुस्तक ५, पृ. ३८ १३. शंका-सूत्र नं. ४० की टीकामें तीन पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टियोंका . जघन्य अन्तर बतलाते हुए उन्हें केवल एक असंयतसम्यक्त्व गुणस्थानमें ही क्यों प्राप्त कराया ! सूत्र नं. ३६ की टीकाके समान यहां भी · अन्य गुणस्थानमें लेजाकर' ऐसा सामान्य निर्देश कर तृतीय, चतुर्थ व पंचम गुणस्थानको प्राप्त क्यों नहीं कराया ? (नेमीचंद रतनचंदजी, सहारनपुर)
समाधान-सूत्र नं. ३६ और ४० की टीकामें केवल कथनशैलीका ही भेद ज्ञात होता है, अर्थका नहीं । यहां सम्यक्त्वसे संभवतः केवल चतुर्थ गुणस्थानका ही अभिप्राय नहीं, किन्तु मिथ्यात्वको छोड़ उन सब गुणस्थानोंसे है जो प्रकृत जीवोंके संभव हैं । यह बात कालानुगमके सूत्र ५८ की टीका (पुस्तक ४ पृ. ३ ६३ ) को देखनेसे और भी स्पष्ट हो जाती है जहां उक्त तीनों तिथंचोंके मिथ्यात्वसे सम्यग्मिथ्यात्व, असंयतसम्यक्त्व व संयतासंयत गुणस्थानमें जानेआनेका स्पष्ट विधान है।
पुस्तक ५, पृ. ४० १४. शंका-सूत्र ४५ में तीन पंचेन्द्रिय तिथंच सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका उत्कृष्ट अन्तर बतलाते हुए अन्तमें प्रथम सम्यक्त्वको ग्रहण कराकर सम्यग्मिथ्यात्वको क्यों प्राप्त कराया, सीधे मिथ्यात्वसे ही सग्यग्मिथ्यात्वको क्यों नहीं प्राप्त कराया ? क्या उनके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियोंकी उद्वेलना हो जाती है ? (नेमीचंद रतनचंदजी, सहारनपुर )
समाधान-हां, वहां उक्त दो प्रकृतियोंकी उद्वेलना हो जाती है । वह उद्वेलना पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र कालमें ही हो जाती है, और यहां तीन पल्यापम कालका : . अन्तर बतलाया जा रहा है।
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