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शंका-समाधान ।
(७) समाधान-यह भेद उत्तर और दक्षिण प्रतिपत्तियोंके भेदोंपरसे उत्पन्न हुआ है . जिसके लिये देखिये पुस्तक ५ अंतरानुगम सूत्र ३७ की टीका पृ. ३२. .
पुस्तक ५, पृ. ९१ १९. शंका- यहां सूत्र १६९ व उसकी टीकामें वैक्रियिक काययोगियोंमें आदिके चार गुणस्थानोंके अन्तरको मनोयोगियोंके समान कहकर दोनोंमें नाना व एक जीवकी अपेक्षा अन्तराभावकी समानता बतलाई है । परन्तु सूत्र १५४-१५५ में मनोयोगी सासादन व सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण अन्तर बतलाया है । ओघकी अपेक्षा भी (सूत्र ५-६) उक्त दोनों गुणस्थानोंमें वही अन्तर बतलाया गया है। फिर यहां चारों गुणस्थानोंमें जो अन्तरका अभाव कहा गया है वह कैसे घटित होगा ? (नेमीचंद रतलचंदजी, सहारनपुर,
समाधान-यहां सूत्र १६९ की टीकामें 'अन्तराभावण' से यदि 'अन्तर और उसके अभावका अर्थ लिया जाय तो सामञ्जस्य ठीक बैठ जाता है कि सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर तथा उन्हीं गुणस्थानोंके एक जीवकी अपेक्षा एवं मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टियोंके नाना व एक जीवकी अपेक्षा अन्तराभावसे वैक्रियिक काययोगियोंकी मनोयोगियोंसे समानता है।
पुस्तक ५, पृ. ९९ २०. शंका-यहां सूत्र १८९ की टीकामें स्त्रीवेदी अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणका अन्तर बतलाते हुए जो कृतकृत्यवेदक होकर अपूर्वकरण उपशामक होना कहा है वह किस अपेक्षासे है, क्योंकि, उपशमश्रेणीका आरोहण क्षायिकसम्यग्दृष्टि या द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि ही करते हैं, वेदकसम्यग्दृष्टि नहीं ? ( नेमीचंद रतनचंदजी, सहारनपुर )
समाधान-यहां कृतकृत्यवेदक होकर अपूर्वकरण उपशामक हुआ ' इसका अभिप्राय कृतकृत्यवेदककालको पूर्णकर क्षायिक सम्यक्त्व के साथ अपूर्वकरण उपशामक होनेका है, न कि कृतकृत्यवेदक होनेके अनन्तर समयमें ही अपूर्वकरण उपशामक होनेका । यह बात पुरुषवेदी अपूर्वकरण उपशामकके उत्कृष्ट अन्तरकी प्रक्रियासे भी सिद्ध होती है, जिसके लिये देखिये सूत्र नं. २०३ की टीका ।
पुस्तक ५, पृ. १०२ २१. शंका-सूत्र १९७ में पुरुषवेदी सासादनसम्यग्दृष्टियोंके अन्तरनिरूपणमें
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