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१, ९-६, ४.] चूलियाए उक्कस्सट्ठिदीए णाणावरणादीणि
[१४७ समाणद्विदिकम्मक्खंधेसु आबाधा-णिसेग-विसेसाणमत्थित्तविरोहा । विदियपक्खे णाणावरणादीणं तीसं सागरोवमकोडाकोडी हिदि ति ण घडदे, तदो समऊणादिद्विदीणं पि तत्थुवलंभादो ? एत्थ परिहारो उच्चदे । तं जहा- ण ताव एगसमयपबद्धपरमाणुपोग्गलाणं पुध पुध णाणावरणविवक्खा एत्थ अत्थि', णाणावरणस्स अणंतियप्पसंगादो । ण णिसेयं पडि णाणावरणववएसो अत्थि, तस्स असंखेज्जत्तप्पसंगादो । तदो मदि-सुद
ओहि-मणपज्जव-केवलणाणावरणसामण्णस्स मदि-सुद-ओहि-मणपज्जव-केवलणाणावरणत्तमिच्छिज्जदे, अण्णहा णाणावरणपयडीणं पंचयत्तविरोहादो। एत्थ वि ण पढमपक्खउत्तदोसो, अणब्भुवगमादो । ण विदियपक्खउत्तदोसो वि, तदो समऊणादिहिदीणं उक्कस्सद्विदीदो दबट्ठियणयावलंबणे अपुधभूदाणं पुधणिदेसाणुववत्तीदो। अर्थात् हानिवृद्धि प्रमाण (चय ) के अस्तित्व मानने में विरोध आता है। द्वितीय पक्षके मानवेपर शानावरणादि सूत्रोक्त कर्मोंकी तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमाण स्थिति घटित नहीं होती है, क्योंकि, उस उत्कृष्ट स्थितिसे एक समय कम आदि स्थितियां भी उन काँमें पाई जाती हैं ?
समाधान-यहां पर उक्त आशंकाका परिहार कहते हैं । वह इस प्रकार हैयहांपर न तो एक समयमें बंधे हुए पुद्गल-परमाणुओंके पृथक् पृथक् ज्ञानावरण-कर्मकी विवक्षा है, क्योंकि, वैसा माननेपर ज्ञानावरणकर्मके अनन्तताका प्रसंग आता है। न यहांपर एक एक निषेकके प्रति 'ज्ञानावरण' ऐसा व्यपदेश (नाम) किया गया है, क्योंकि, वैसा माननेपर ज्ञानावरण कर्मके असंख्येयताका प्रसंग आता है। इसलिए मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय, और केवलज्ञानके आवरणसामान्यके मति, श्रुत, अवधि,मनःपर्यय और केवलज्ञानावरणता मानी गई है। अर्थात् यहां मति, श्रुत आदि ज्ञानावरणोंके भेद-प्रभेदोंकी विवक्षा नहीं की गई; किन्तु, मति, श्रुत आदि पांच भेदोंकी सामान्यसे ही विवक्षा की गई है । यदि ऐसा न माना जाय, तो ज्ञानावरणकी प्रकृतियोंके 'पांच' इस संख्याका विरोध आता है । तथा ऐसा माननेपर भी प्रथम पक्षमें कहा गया दोष नहीं आता है, क्योंकि, वैसा माना नहीं गया है । अर्थात् एक समयमें बंधे हुए पांचों शानावरणीय कमौके समस्त पुद्गल-परमाणुओंकी स्थिति तीस कोडाकोड़ी सागरोपमप्रमाण ही स्वीकार नहीं की गई है। इसी प्रकार द्वितीय पक्षमें कहा गया दोष नहीं आता है, क्योंकि, द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करने पर उस उत्कृष्ट स्थितिसे अपृथग्भूत एक समय कम, दो समय कम आदि स्थितियोंके पृथक् निर्देशकी आवश्यकता नहीं रहती।
१ दोगुणहाणिपमाणं णिसेयहारो दु होइ तेण हिदे। इहे पदमणिसेये विसेसमागच्छदे तत्थ गो.क, ९२८. २ कप्रतौ ' णत्थि' इति पाठः । ३ प्रतिषु '-लंबणो' इति पाठः ।
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