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छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, ९-६, ५.
संपहि दव्वणि देसणाए वाउलिदचित्तस्स पज्जवट्ठियणयसिस्सस्स मदिवाउल्लेविणासणङ्कं पज्जवट्ठियणयदेखणा कीरदे
तिण्णि वाससहस्साणि आवाधा ॥ ५ ॥
ण बाधा अबाधा, अबाधा चैव आवाधा । जहि समयपबद्धम्हि तीसं सारोकोडाकडदीया परमाणुपोग्गला अत्थि, ण तत्थ एगसमयकालट्ठिदीया परमाणुपोग्गला संभवति, विरोहादो । एवं दो तिष्णि आदि काढूण जा उक्कस्सेण तिणि वास सहरसमेतका लट्ठिदिया वि परमाणुपोग्गला णत्थि । कुदो ? सहावदो । न हि स्वभावाः परपर्यनुयोगार्हाः " । एसा उक्कस्सिया आवाहा । एगसमयपबद्धो तीस सागरोवमकोडाको डीडदिपोग्गलक्खंधेहि अप्पणो असंखेजदिभागेहि सहिदो ओकडणाए विणा ट्ठिदिक्खएणेत्तियं कालं उदयं णागच्छदित्ति उत्त होदि । समऊण- दुसमऊणादिसंसारोकोडाकडीणं पि एसा आबाधा होदि जाव समऊणाबाध | कंड एणूण
अब, द्रव्यार्थिकनयकी देशना से व्याकुलित चित्तवाले, पर्यायार्थिकनयी शिष्यकी बुद्धि-व्याकुलताको दूर करनेके लिए आचार्य पर्यायार्थिकनयकी देशना करते हैं
पूर्वसूत्रोक्त ज्ञानावरणीयादि कर्मोंका आबाधाकाल तीन हजार वर्ष है ॥ ५ ॥
बाधाके अभावको अबाधा कहते हैं और अबाधा ही आबाधा कहलाती है । जिस समयप्रबद्धमें तीस कोड़ाकोडी सागरोपम स्थितिवाले पुद्गलपरमाणु होते हैं, उस समयबद्ध में एक समयप्रमाण काल -स्थितिवाले पुद्गलपरमाणु रहना संभव नहीं हैं, क्योंकि, वैसा माननेमें विरोध आता है । इसी प्रकार उस उत्कृष्ट स्थितिवाले समयप्रबद्ध में दो समय तीन समयको आदि करके तीन हजार वर्ष प्रमित काल स्थितिवाले भी पुद्गल परमाणु नहीं हैं, क्योंकि, ऐसा स्वभाव ही है, और स्वभाव अन्य के प्रश्न योग्य नहीं हुआ करते हैं' ऐसा न्याय है । पूर्व सूत्रोक्त कर्मोंकी यह उत्कृष्ट आबाधा है । एक समयप्रबद्ध अपने असंख्यातवें भागप्रमाण तीस कोड़ा कोड़ी सागरोपम स्थितिवाले पुद्गलस्कंधोंसे सहित होता हुआ अपकर्षणके द्वारा विना स्थिति-क्षयके इतने, अर्थात् तीन हजार वर्ष-प्रमित, काल तक उदयको नहीं प्राप्त होता है, यह अर्थ कहा गया है। एक समय कम तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम, दो समय कम तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम, इत्यादि क्रमसे एक समय-हीन आबाधाकांडकसे कम तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमित उत्कृष्ट स्थिति
२ प्रतिपु-मेककालट्ठिदिया ' इति पाठः ।
१ प्रतिषु ' मदिवाउल-' इति पाठः ।
३ प्रतिषु ' परपर्यनियोगाहीः ' इति पाठः ।
४ उकस्सट्टिदिबंधे सयलाबाहा हु सव्वठिदिरयणा । तक्काले दीसदि तोऽधोऽधो बंधट्टिदीण च ॥ आबाधाणं बिदियो तदियो कमसेो हि चरमसमयो दु । पढमो बिदियो तदियो क्रमसो चरिमो णिसेओ दु || गो. क. ९४०-९४१.
५ कम्मसरूत्रेणागयदव्वं ण य एदि उदयरूवेण । रूवेणुदीरणस्स व आबाहा जान ताव हवे ॥ गो. क. १५५.
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