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________________ १४४ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ९-५, १. मण्णासिमेदासिं पडिवक्खपयडीणं बंधाभावा । ण च विसोहीवसेण धुवबंधीणं बंधवोच्छेदो होदि, णाणावरणादीणं पि तदो बंधवोच्छेदप्पसंगा । ण च एवं, अणवत्थावत्तदो । ' आउअं च ण बंधदि ' त्ति च सद्देण सूचिदअबज्झमाणपयडीओ एत्थ जाणिय वतव्वाओ । एवं पंचमी चूलिया समत्ता । एवं 'कदि काओ पडीओ बंधदि ' त्ति जं पदं तस्स वक्खाणं समत्तं । बन्ध नहीं होता है। तथा विशुद्धि के वशसे ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका बन्ध-व्युच्छेद नहीं होता है, अन्यथा उसी विशुद्धि के वशसे ज्ञानावरण आदि प्रकृतियोंके भी बन्ध-व्युच्छेदका प्रसंग आता है । किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, वैसा माननेपर अनवस्था दोष आता है । ' आउअं च ण बंधदि ' इस वाक्यमें पठित 'च' शब्द के द्वारा सूचित अवध्यमान प्रकृतियां यहां जानकर कहना चाहिए । विशेषार्थ - 'च' शब्दसे सूचित प्रकृतियां इस प्रकार हैं- असातावेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति, शोक, नरकगति, मनुष्यगति, देवगति, एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, आहारकशरीर, न्यग्रोधपरिमंडल संस्थान, स्वातिसंस्थान, कुब्जकसंस्थान, वामनसंस्थान, हुंडकसंस्थान, वैक्रियिकशरीर - अंगोपांग, आहारकशरीर अंगोपांग, वज्रनाराचसंहनन, नाराच संहनन, अर्धनाराचसंहनन, कीलित संहनन, असंप्राप्तासृपाटिकासंहनन, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आतप, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारणशरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकीर्त्ति, तीर्थकर और उच्चगोत्र । इन प्रकृतियोंको प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख हुआ सातवीं पृथिवीका मिथ्यादृष्टि नारकी नहीं बांधता है । इस प्रकार पांचवीं चूलिका समाप्त हुई । इस प्रकार 'कितनी और किन प्रकृतियोंको बांधता है' यह जो सूत्रोक्त पद है, उसका व्याख्यान समाप्त हुआ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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