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१, ९-५, २.] चूलियाए तदिओ महादंडओ
[१४३ मिच्छत्तं सोलसण्हं कसायाणं पुरिसवेद-हस्स-रदि-भय-दुगुंछा । आउगं च ण बंधदि । तिरिक्खगदि-पचिंदियजादि-ओरालियन्तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-ओरालियंगोवंग-वजरिसहसंघडण-वण्ण-गंधरस- फास-तिरिक्खगदिपाओग्गाणुपुब्वी अगुरुअलहुव-उवघाद-(परघाद-) उस्सासं। उज्जोवं सिया बंधदि, सिया ण बंधदि। पसत्थविहायगदि-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिर-( सुभ-) सुभग-सुस्सर-आदेज्जजसकित्ति-णिमिण-णीचागोद-पंचण्हमंतराइयाणं एदाओ पयडीओ बंधदि पढमसम्मत्ताहिमुहो अधो सत्तमाए पुढवीए णेरइओं ॥२॥
तिरिक्खगदि-तिरिक्खगदिपाओग्गाणुपुवी-उज्जोवणीचागोदाणं एत्थ कधं ण बंधो वोच्छिण्णो ? ण, सत्तमपुढोवणरइयोमच्छादिट्ठिस्स सेसगदिबंधं पडि भवसंकिलेसेण अजोग्गस्स तिरिक्खगदि-तिरिक्खगदिपाओग्गाणुपुवी-णीचागोदे मुच्चा सस्सकाल
बन्धी आदि सोलह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, इन प्रकृतियोंको बांधता है । किन्तु आयुकर्मको नहीं बांधता है । तिर्यग्गति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीर-अंगोपांग, वज्रऋषभनाराचसंहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छास, इन प्रकृतियोंको बांधता है। उद्योत प्रकृतिको कदाचित् बांधता है और कदाचित् नहीं बांधता है। प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र और पांचों अन्तरायकर्म, इन प्रकृतियोंको बांधता है ॥ २॥
शंका-तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, और नीचगोत्र, इन प्रकृतियोंकी यहांपर बन्ध-व्युच्छित्ति क्यों नहीं होती?
समाधान- नहीं, क्योंकि, भव-सम्बन्धी संक्लेशके कारण शेष गतियोंके बन्धके प्रति अयोग्य, ऐसे सातवीं पृथिवीके नारकी मिथ्यादृष्टिके तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और नीचगोत्रको छोड़कर सदाकाल इनकी प्रतिपक्षस्वरूप अन्य प्रकृतियोंका
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१ तं णरदुगुच्चहीणं तिरियदुणीचजुदपयाडेपरिमाणं | उज्जोवण जुदं वा सत्तमखिदिगा हु बंधति ॥ लन्धि, २३.
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