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छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ९-५, १. तिरिक्ख-देवगदि-एइंदिय-वेइंदिय-तेइंदिय-चदुरिंदियजादि-वेउब्विय-आहारसरीरं समचउरससंठाणं वज्ज पंच संठाणं वेउब्धियाहारसरीर-अंगोवंगं वज्जरिसहसंघडणं वज्ज पंच संघडणं णिरय-तिरिक्ख-देवगइपाओग्गाणुपुव्वी अप्पसत्थविहायगई आदाउज्जोव-थावरसुहुम-अपज्जत्त-साहारण-अथिर-असुह-दुभग-दुस्सर-अणादेज-अजसकित्ति-णीचागोद-तित्थयरमिदि । एदासिं बंधवोच्छेदकमो जहा पढममहादंडए उत्तो तधा वत्तव्यो ।
एवं चउत्थी चूलिया समत्ता ।
पंचमी चूलिया तत्थ इमो तदिओ महादंडओ कादवो भवदि' ॥१॥
एदस्स तदियत्तमउत्ते वि जाणिज्जदि, पुव्वं दोण्हं दंडयाणमुवलंभा ? ण, जुत्तिवादे अकुसलसद्दाणुसारिसिस्साणुग्गहट्टत्तादो ।
पंचण्हं णाणावरणीयाणं णवण्हं दंसणावरणीयाणं सादावेदणीयं नरकगति, तिर्यग्गति, देवगति, एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, श्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, आहारकशरीर, समचतुरस्रसंस्थानको छोड़कर शेष पांच संस्थान, वैक्रियिकशरीर-अंगोपांग, आहारकशरीर-अंगोपांग, वज्रऋषभनाराचसंहननको छोड़कर शेष पांच संहनन, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अप्रशस्तविहायोगति, आताप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारणशरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयश-कीर्ति, नीचगोत्र और तीर्थकर, ये नहीं बंधनेवाली प्रकृतियां हैं ।
इन प्रकृतियोंके बन्ध-व्युच्छेदका क्रम जिस प्रकार प्रथम महादंडकमें कहा है, उसी प्रकार यहांपर कहना चाहिए।
इस प्रकार चौथी चूलिका समाप्त हुई।। उन तीन महादंडकों से यह तृतीय महादंडक कहने योग्य है ॥१॥
शंका-इस महादंडकके तृतीयपना नहीं कहने पर भी जाना जाता है, क्योंकि, इसके दो पूर्व दंडक पाये जाते हैं ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, युक्तिवादमै अकुशल ऐसे शब्दनयानुसारी शिष्योंके अनुग्रहके लिए यहांपर इस महादंडकके पूर्व 'तृतीय' यह शब्द कहा है।
प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख ऐसा नीचे सातवीं पृथिवीका नारकी मिथ्यादृष्टि जीव, पांचों ज्ञानावरणीय, नवों दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, अनन्तानु
१ प्रतिषु ' भणदि' इति पाठः ।
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