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________________ १, ९-४, २.] चूलियाए विदियो महादंडओ परघाद-उस्सास-पसत्थविहायगदी तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिरसुभ-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज जसकित्ति-णिमिण-उच्चागोदं पंचण्हमंतराइयाणं एदाओ पयडीओ बंधदि पढमसम्मत्ताहिमुहो अधो सत्तमाए पुढवीए णेरइयं वज्ज देवो वा णेरइओ वा ॥ २ ॥ पढममहादंडए जधा ओरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंगाणं बंधवाच्छेदो जादो, तधा ताए चेव विसोहीए वट्टमाणाणं देव-णेरइयाणं तासिं पयडीणं बंधवोच्छेदो किण्ण जादो ? उच्चदे - ण विसोही एकल्लिया मणुस तिरिक्खगइउदएण सहकारिकारणेण वज्जिया तेसिं बंधवोच्छेदकरणक्खमा, कारणसामग्गीदो उप्पज्जमाणस्स कज्जस्स वियलकारणादो समुप्पत्तिविरोहा । देवणेरइएसु तासिं धुवबंधित्तसंभवादो च ण बंधवोच्छेदो । एवं वज्जरिसहसंघडणस्स विणासे कारणं वत्तव्वं । 'आउगं च ण बंधदि' त्ति च-सद्दो समुच्चयद्वत्तादो अण्णाओ च पयडीओ अवज्झमाणाओ सूचेदि । ताओ कदमाओ ? असादावेदीय-इस्थि-णउंसयवेद-अरदि सोग-आउचउक्क-णिरयअगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश-कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांचों अन्तराय, इन प्रकृतियोंको बांधता है ॥२॥ शंका - प्रथम महादंडकमें जिस प्रकार औदारिकशरीर और औदारिकशरीरअंगोपांग, इन प्रकृतियोंका बन्ध-व्युच्छेद हुआ है, उस प्रकार उसी ही विशुद्धिमें वर्तमान देव और नारकियोंके उन प्रकृतियोंका बन्ध-व्युच्छेद क्यों नहीं होता? समाधान-सहकारी कारणरूप मनुष्यगति और तिर्यग्गतिके उदयसे वर्जित (रहित) अकेली विशुद्धि उन प्रकृतियोंके बन्धव्युच्छेद करनेमें समर्थ नहीं है, क्योंकि, कारण-सामग्रीसे उत्पन्न होनेवाले कार्यकी विकल कारणसे उत्पत्तिका विरोध है। अर्थात् जो कार्य कारण सामग्रीकी सम्पूर्णतासे उत्पन्न होता है, वह कारण-सामग्रीकी अपूर्णतासे उत्पन्न नहीं हो सकता है। दूसरी बात यह है कि देव और नारकियोंमें औदारिकशरीर आदि उन प्रकृतियोंका ध्रुवबंध संभव है, इसलिए उनका बन्ध व्युच्छेद नहीं होता है। इसी प्रकार वज्रऋषभनाराचसंहननके बन्ध-व्युच्छेदमें कारण कहना चाहिए । 'आउगं च ण बंधदि ' इस वाक्यमें पठित 'च' शब्द समुच्चयार्थक है, अतएव नहीं बंधनेवाली अन्य भी प्रकृतियोंको सूचित करता है। शंका-वे नहीं बंधनेवाली प्रकृतियां कौन सी हैं ? समाधान- असातावेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति, शोक, आयु-चतुष्क, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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