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________________ १४०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं __ [ १, ९-४, १. एदासु पयडीसु बंधेण वोच्छिण्णासु अवसेसपयडीओ पुव्वपरूविदाओ तिरिक्खमणसमिच्छादिट्ठी सम्मत्ताहिमुहो ताव बंधदि जाव मिच्छादिहिचरिमसमयं पत्तो त्ति । एवं तदियचूलिया समत्ता । चउत्थी चूलिया तत्थ इमो विदियो महादंडओ कादव्वो भवदि ॥ १॥ - पढमदंडयादो अभिण्णस्स कधमेदस्स विदियत्तं ? ण, पयडिभेदेण सामित्तभेदेण च भेदुवलंभा। पंचण्हं णाणावरणीयाणं णवण्हं दंसणावरणीयाणं सादावेदणीयं मिच्छत्तं सोलसण्हं कसायाणं पुरिसवेद-हस्स-रदि-भय-दुगुंछा । आउअं च ण बंधदि। मणुसगदि पंचिंदियजादि-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीरसमचउरससंठाणं ओरालियसरीरअंगोवंगं वज्जरिसहसंघडणं वण्णगंध-रस-फासं मणुसगदिपाओग्गाणुपुब्बी अगुरुअलहुअ-उवघाद इन उपर्युक्त प्रकृतियोंके बन्धसे व्युच्छिन्न होने पर पूर्व प्ररूपित अवशिष्ट प्रकृतियोंको सम्यक्त्वके अभिमुख तिर्यंच और मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीव तब तक बांधता है, जबतक कि वह मिथ्यादृष्टि गुणस्थानके अन्तिम समयको प्राप्त होता है। इस प्रकार तीसरी चूलिका समाप्त हुई। उन तीन महादंडकोंमेंसे यह द्वितीय महादंडक कहने योग्य है ॥१॥ शंका-प्रथम महादंडकसे अभिन्न इस दंडकके द्वितीयपना कैसे है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, प्रकृतियोंके भेदसे और स्वामित्वके भेदसे दोनों दंडकोंमें भेद पाया जाता है। प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख देव, अथवा नीचे सातवीं पृथिवीके नारकीको छोड़कर शेष नारकी जीव, पांचों ज्ञानावरणीय, नवों दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी आदि सोलह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, इन प्रकृतियोंको बांधता है। किन्तु आयुकमेको नहीं बांधता है। मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुस्रसंस्थान, औदारिकशरीरअंगोपांग, वज्रऋषभनाराचसंहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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