SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 199
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १, ९-३, २. ] चूलियाए पढमो महादंडओ [१३९ बंधवोच्छेदो । तदो सागरोवमसदपुधत्तमोसरिदूण णग्गोधपरिमंडलसंठाण-वज्जणारायणसरीरसंघडणाणं दोण्हं पयडीणमेक्कसराहेण बंधवोच्छेदो। तदो सागरोवमसदपुधत्तमोसरिदूण मणुसगदि-ओरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहवइरणारायणसरीरसंघडण-मणुसगदिपाओग्गाणुपुब्बीणं पंचण्डं पयडीणमेक्कसराहेण बंधवोच्छेदो' । तदो सागरोवमसदपुधत्तमोसरिदण असादावेदणीय अरदि-सोग-अथिर-असुभ-अजसकित्तीणं छण्हं पयडीणमेक्कसराहेण बंधवोच्छेदो। कुदो एस बंधवोच्छेदकमो? असुह-असुहयर-असुहतमभेएण पयडीणमवट्ठाणादो। एसो पयडिबंधवोच्छेदकमो विसुज्झमाणाणं भव्वाभव्वमिच्छादिट्ठीणं साहारणों । किंतु तिण्णि करणाणि भव्वमिच्छादिहिस्सेव, अण्णत्थ तेसिमणुवलंभादो। भणिदं च खयउवसमो विसोही देसण पाओग्ग करणलद्धी य । चत्तारि वि सामण्णा करणं पुण होइ सम्मत्ते ॥ १ ॥ एक साथ बन्ध-व्युच्छेद होता है । उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान और वज्रनाराचशरीरसंहनन, इन दोनों प्रकृतियोंका एक साथ बन्धव्युच्छेद होता है। उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिकशरीर-अंगोपांग, वज्रवृषभवज्रनाराचशरीरसंहनन और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, इन पांचों प्रकृतियोंका एक साथ बन्ध-व्युच्छेद होता है। उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ, और अयश-कीर्ति, इन छहों प्रकृतियोंका एक साथ बन्ध-व्युच्छेद होता है। __ शंका-यह प्रकृतियोंके बन्ध-व्युच्छेदका क्रम किस कारणसे है ? समाधान-अशुभ, अशुभतर और अशुभतमके भेदसे प्रकृतियोंका अवस्थान माना गया है । उसी अपेक्षासे यह प्रकृतियोंके बन्ध-व्युच्छेदका क्रम है।। यह प्रकृतियोंके बन्ध-व्युच्छेदका क्रम विशुद्धिको प्राप्त होनेवाले भव्य और अभव्य मिथ्यादृष्टि जीवोंके साधारण अर्थात् समान है। किन्तु अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण, ये तीन करण भव्य मिथ्यादृष्टि जीवके ही होते हैं, क्योंकि, अन्यत्र अर्थात् अभव्य जीवोंमें वे पाये नहीं जाते हैं । कहा भी है क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण, ये पांच लब्धियां होती हैं। उनमेंसे प्रारंभकी चार तो सामान्य है, अर्थात् भव्य और अभव्य जीव, इन दोनोंके होती हैं। किन्तु पांचवीं करणलब्धि सम्यक्त्व उत्पन्न होनेके समय भव्य जीवके ही होती है ॥१॥ १ खुज्जद्धं णाराए इत्थीवेदे य सादिणाराए । णम्गोधवजणाराए मणुओरालदुगवज्जे ॥ लब्धि. १४. २ अथिर सुभग जस अरदी सोय असादे य होति चोतीसा। बंधोसरणट्ठाणा भन्वाभब्बेसु सामण्णा ॥ लन्धि, १५. ३लन्धि. ३. परं तत्र चतुर्थचरणे करणं सम्मत्तचारिते' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy