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१, ९-३, २.]
चूलियाए पढमो महादंडओ संघडण-णिरय-तिरिक्ख-मणुसगदिपाओग्गाणुपुब्बी आदाउज्जोव-अप्पसत्थविहायगदिथावर-सुहुम-अपज्जत्त-साधारण अथिर-असुभ-दुभग-दुस्सर-अणादेज-अजसकित्ति-तित्थयरणीचागोदमिदि एदाओ ण बंधदि, विसुद्धतमपरिणामत्तादो । तित्थयराहारदुर्ग ण बंधदि, सम्मत्त-संजमाभावादो।
एत्थ विसोधीए वड्डमाणाए सम्मत्ताहिमुहमिच्छादिहिस्स पयडीणं बंधवोच्छेदकमो उच्चदे- सव्यो सम्मत्ताहिमुहमिच्छादिट्ठी सागरोवमकोडाकोडीए अंतो ठिदि बंधदि', णो बाहिद्धा । तदो सागरोवमसदपुधत्तं हेट्ठा ओसरिदूण णिरआउअस्स बंधवोच्छेदो होदि। आहारकशरीर-अंगोपांग, छहों संहनन, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, मनुष्यगतिप्रायोग्यानपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारणशरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयश-कीर्ति, तीर्थकर और नीचगात्र, इन प्रकृतियोंको विशुद्धतम परिणाम होनेसे पूर्वोक्त जीव नहीं बांधता है। तीर्थकर और आहारकद्विकको सम्यक्त्व और संयमका अभाव होनेसे नहीं बांधता है।
अब यहां विशुद्धिके बढ़ने पर प्रथम सम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्यादृष्टि जीवके प्रकृतियोंके बंध-व्युच्छेदका क्रम कहते हैं- सभी अर्थात् चारों गतिसंबंधी कोई भी प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्यादृष्टि जीव एक कोड़कोड़ी सागरोपमके भीतरकी स्थिति अर्थात् अन्तःकोडाकोडी सागरोपमकी स्थितिको बांधता है । इससे बाहिर, अर्थात् अधिककी, कर्मस्थितिको नहीं बांधता । इस अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपम स्थितिबंधसे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे अपसरणकर नारकायुका बन्धव्युच्छेद होता है।
विशेषार्थ- अन्तःकोडाकोड़ी सागरोपम स्थितिबंधसे नारकायुकी बन्ध-व्युच्छित्ति पर्यन्त क्रम इस प्रकार पाया जाता है- उक्त स्थितिबंधसे पल्यके संख्यातवें भागसे हीन स्थितिको अन्तर्मुहर्त तक समानता लिए हुए ही वांधता है। फिर उससे पल्यके संख्यातवें भागसे हीन स्थितिको अन्तर्मुहूर्त तक बांधता है। इस प्रकार पल्यके संख्यातवें भागरूप हानिके क्रमस एक पत्य हीन अन्तःकोडाकोड़ी सागरोपम स्थितिको अन्तर्मुहूर्त तक बांधता है। इसी पल्यके संख्यातवें भागरूप हानिके क्रमसे ही स्थितिबन्धापसरण करता हुआ दो पल्यसे हीन, तीन पल्यसे हीन, इत्यादि स्थितिको अन्तर्मुहूर्त तक बांधता
१ सम्मत्तहिमुहमिच्छो त्रिसोहिवड्डीहिं वडमाणो हु । अंतोकोडाकोडिं सत्ताहं बंधणं कुणई ॥ लन्धि. ९.
२ तस्मादन्तःकोटीकोटिसागरोपमप्रमितात् स्थितिबन्धात् पल्यसंख्यातकभागोनां स्थितिमन्तर्मुहूर्त यावत्समानामेव बनाति । पुनरतत. पल्यसख्यातैकमागोनामपरां स्थितिमन्तर्मुहूर्त यावत् बन्नाति । एवं पल्यसंख्यातकभागहानिक्रमेण पल्योनामन्तःकोटीकोटिसागरोपमस्थितिमन्तर्मुहूर्त यावनाति । एवं पल्यसंख्यातकभागहानिक्रमेणैव पल्यद्वयोनां पल्यत्रयोनामित्यादिस्थितिमन्तर्मुहूर्त यावन्नाति । तथा सागरोपमहीनां द्विसागरोपमहीनां त्रिसागरोपमहीनां इत्यादिसप्ताष्टशतलक्षणसागरोपमपृथक्त्वहीनामन्तःकोटीकोटिस्थितिमन्तर्मत यावद्वभाति तदा एकं नारकायुःप्रकृतिमन्धापसरणस्थानं भवति, तदा नारकायुर्बन्धव्युच्छित्तिर्भवतीत्यर्थः । लब्धि. गा. १०. टी.
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