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१३४) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, ९-३, २. व ण बंधदि । देवगदि-पंचिंदियजादि-वेउब्बियन्तेजा-कम्मइयसरीरं समचउरससंठाणं वेउब्बियअंगोवंगं वण्ण-गंध-रस-फासं देवगदिपा
ओग्गाणुपुबी अगुरुअलहुअ-उवघाद-परघाद-उस्सास-पसत्थविहायगदि-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिर-सुभ-सुभग-सुस्सर-आदेज-जसकित्ति-णिमिण-उच्चागोदं पंचण्हमंतराइयाणमेदाओ पयडीओ बंधदि पढमसम्मत्ताभिमुहो सण्णिपंचिंदियतिरिक्खो वा मणुसो वा ॥२॥
पंचण्हं णाणावरणीयाणमिच्चादी छट्ठीबहुवयणणिदेसा विदियाए विहत्तीए अत्थे दहव्वा । 'आउगं च ण बंधदि एत्थतणचसदो समुच्चयत्थे दट्टयो, आउगं च अण्णाओ च ण बंधदि त्ति । काओ अण्णाओ ? असाद-इत्थी-णउंसयवेद-आउचउक्कअरदि-सोग-णिरय-तिरिक्ख-मणुसगइ एइंदिय वेइंदिय तेइंदिय-चउरिंदियजादि-ओरालियाहारसरीर-णग्गोहपरिमंडल-सादिय-खुज्ज-वामण हुंडसंटाण-ओरालियाहारसरीरंगोवंग छआयुकर्मको नहीं बांधता है। देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, काणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीर-अंगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छास, प्रशस्तविहायोगति, बस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांचों अन्तराय, इन प्रकृतियोंको बांधता है ॥२॥
पंचण्डं णाणावरणीयाणं' इत्यादि षष्टी विभक्तिके बहुवचनका निर्देश द्वितीया विभक्तिके अर्थमें जानना चाहिए । 'आउगं च ण बंधदि' इस वाक्यमें प्रयुक्त 'च' शब्द समुश्चयार्थक जानना चाहिए, जिसके अनुसार यह अर्थ होता है कि आयुकर्मको और अन्य प्रकृतियोंको नहीं बांधता है।
शंका-वे अन्य प्रकृतियां कौनसी हैं जिन्हें प्रथम सम्यक्त्वके अभिमुख हुआ संशी पंचन्द्रिय तिर्यंच अथवा मनुष्य नहीं बांधता?
समाधान-असातावेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, आयुचतुष्क, अरति, शोक, नरकगति, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, आहारकशरीर, न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान, स्वातिसंस्थान, कुब्जकसंस्थान, वामनसंस्थान, हुंडकसंस्थान, औदारिकशरीर-अंगोपांग,
१ धादिति सादं मिच्छं कसाय पुंहस्सरदि भयस्स दुगं । अपमत्तडवीसुच्चं बंधति विसुद्धणरतिरिया ॥ देवतसवण्णअगुरुच उचं समचउरतेजकम्मइयं । सग्गमण पंचिंदी थिरादिणिमिणमउवासं ॥ लब्धि. २०.२१.
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