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________________ तदिया चूलिया इदाणिं पढमसम्मत्ताभिमुहो जाओ पयडीओ बंधदि ताओ पयडीओ कित्तइस्सामो ॥ १॥ पयडिसमुक्कित्तणं ट्ठाणसमुक्कित्तणं च भणिदाणंतरं तिण्णिमहादंडयपरूबणा किमट्ठमागदा? पढमसम्मत्ताभिमुहमिच्छादिट्ठीहि बज्झमाणपयडीओ जाणावणहमागदा। पुधिल्लो चूलियाओ किमट्ठमागदाओ ? ण, ताहि विणा उवरिमचूलियावगमणे उवाया. भावा । ण च पयडीणं सरूवमजाणंतस्स तबिसेसो जाणाविदं सक्किज्जदे, अण्णत्थ तहाणुवलंभा । उवरि भण्णमाणचूलियाणमाहारभूददोचूलियाओ भणिदूण पढमसम्मत्ताभिमुहत्तणेण महत्तं संपत्तजीवेहि बज्झमाणत्तादो वा । पंचण्हं णाणावरणीयाणं णवण्हं दंसणावरणीयाणं सादावेदणीयं मिच्छत्तं सोलसण्हं कसायाणं पुरिसवेद-हस्स-रदि-भय-दुगुंछा । आउगं अब प्रथमोपशमसम्यक्त्वको ग्रहण करनेके अभिमुख जीव जिन प्रकृतियोंको बांधता है, उन प्रकृतियोंको कहेंगे ॥ १ ॥ __शंका-प्रकृतिसमुत्कीर्तन और स्थानसमुत्कीर्तनको कहनेके अनन्तर तीन महादंडकोंकी प्ररूपणा किसलिए आई है ? समाधान-प्रथमोपशमसम्यक्त्वको ग्रहण करनेके अभिमुख मिथ्यादृष्टि जीवों के द्वारा बंधनेवाली प्रकृतियोंके ज्ञान करानेके लिए यह तीन महादंडकोंकी प्ररूपणा आई है। शंका-तो फिर पहली दो चूलिकाएं किसलिए आई हैं ? समाधान - नहीं, क्योंकि, उन पहली दो चूलिकाओंके विना आगे आनेवाली चलिकाओंके समझनेका अन्य उपायका नहीं है। प्रकृतियोंके स्वरूपको नहीं जाननेवाले व्यक्तिको उनका विशेष नहीं बतलाया जा सकता है, क्योंकि, अभ्यत्र पैसा पाया नहीं जाता। अथवा आगे कहे जानेवाली चूलिकाओंके आधारभूत दो चूलिकाओंको कहकर प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख होनेके कारण महत्वको संप्राप्त जीवोंके द्वारा बंधनेवाली होनेसे उन बध्यमान प्रकृतियोंका यहां वर्णन किया जाता है। प्रथमोपशमसम्यक्त्वको ग्रहण करनेके अभिमुख संज्ञी पंचेन्द्रिय तियंच अथवा - मनुष्य, पांचों ज्ञानावरणीय, नवों दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, अनन्तानुवन्धी आदि सोलह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, इन प्रकृतियोंको बांधता है। १ प्रतिषु — सरूवजाणंतस्स ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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