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________________ १३२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ९-२, ११४. बंधमाणस्स तं मिच्छादिहिस्स वा सासणसम्मादिहिस्स वा सम्मामिच्छादिट्ठिस्स वा असंजदसम्मादिट्ठिस्स वा संजदासंजदस्स वा संजदस्स वा ॥ ११४ ॥ सुगममेदं । अंतराइयस्स कम्मरस पंच पयडीओ, दाणंतराइयं लाहंतराइयं भोगंतराइयं परिभोगंतराइयं वीरियंतराइयं चेदि ॥ ११५॥ सुगममेदं । एदासिं पंचण्हं पयडीणमेक्कम्हि चेव हाणं ॥ ११६ ॥ एदं पि सुगमं । बंधमाणस्स तं मिच्छादिहिस्स वा सासणसम्मादिट्ठिस्स वा सम्मामिच्छादिट्ठिस्स वा असंजदसम्मादिट्ठिस्स वा संजदासंजदस्स वा संजदस्स वा ॥ ११७ ॥ सुगममेदं । एवं ठाणसमुक्कित्तणा णाम विदिया चूलिया समत्ता । वह बन्धस्थान उच्चगोत्रकर्मको बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सभ्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयतके होता है ॥ ११४ ॥ यह सूत्र सुगम है। (यहां संयतसे १० वें गुणस्थान तकके संयतोंका अभिप्राय है।) अन्तराय कर्मकी पांच प्रकृतियां हैं- दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, परिभोगान्तराय और वीर्यान्तराय ॥ ११५ ॥ यह सूत्र सुगम है। इन प्रकृतियोंके समुदायात्मक पांच प्रकृतिसम्बन्धी बन्धस्थानका एक ही भावमें अवस्थान होता है ॥ ११६ ।। यह सूत्र भी सुगम है। वह बन्धस्थान उन पांचों अन्तरायप्रकृतियोंके बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयतके होता है ॥ ११७॥ यह सूत्र सुगम है। (यहां संयतसे १० वें गुणस्थान तकके संयतोंका अभिप्राय है।) इस प्रकार स्थानसमुत्कीर्तना नामकी द्वितीय चूलिका समाप्त हुई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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