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छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ९-२, ११४. बंधमाणस्स तं मिच्छादिहिस्स वा सासणसम्मादिहिस्स वा सम्मामिच्छादिट्ठिस्स वा असंजदसम्मादिट्ठिस्स वा संजदासंजदस्स वा संजदस्स वा ॥ ११४ ॥
सुगममेदं ।
अंतराइयस्स कम्मरस पंच पयडीओ, दाणंतराइयं लाहंतराइयं भोगंतराइयं परिभोगंतराइयं वीरियंतराइयं चेदि ॥ ११५॥
सुगममेदं । एदासिं पंचण्हं पयडीणमेक्कम्हि चेव हाणं ॥ ११६ ॥ एदं पि सुगमं ।
बंधमाणस्स तं मिच्छादिहिस्स वा सासणसम्मादिट्ठिस्स वा सम्मामिच्छादिट्ठिस्स वा असंजदसम्मादिट्ठिस्स वा संजदासंजदस्स वा संजदस्स वा ॥ ११७ ॥ सुगममेदं ।
एवं ठाणसमुक्कित्तणा णाम विदिया चूलिया समत्ता । वह बन्धस्थान उच्चगोत्रकर्मको बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सभ्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयतके होता है ॥ ११४ ॥
यह सूत्र सुगम है। (यहां संयतसे १० वें गुणस्थान तकके संयतोंका अभिप्राय है।)
अन्तराय कर्मकी पांच प्रकृतियां हैं- दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, परिभोगान्तराय और वीर्यान्तराय ॥ ११५ ॥
यह सूत्र सुगम है।
इन प्रकृतियोंके समुदायात्मक पांच प्रकृतिसम्बन्धी बन्धस्थानका एक ही भावमें अवस्थान होता है ॥ ११६ ।।
यह सूत्र भी सुगम है।
वह बन्धस्थान उन पांचों अन्तरायप्रकृतियोंके बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयतके होता है ॥ ११७॥
यह सूत्र सुगम है। (यहां संयतसे १० वें गुणस्थान तकके संयतोंका अभिप्राय है।) इस प्रकार स्थानसमुत्कीर्तना नामकी द्वितीय चूलिका समाप्त हुई।
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