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________________ १, ९-२, ११३.] चूलियाए वाणसमुक्त्तिणे गोदं [ १३१ गोदस्स कम्मस्स दुवे पयडीओ, उच्चागोदं चेव णीचागोदं चेव ॥ ११०॥ णेदं सुत्तं पुणरुत्तदोसेण सिज्जदि, विस्सरणालुअसिस्सस्स संभालणडं पुणो पुणो परूवणाए दोसाभावा । जं तं णीचागोदं कम्मं ॥ १११ ॥ बंधमाणस्स तं मिच्छादिट्ठिस्स वा सासणसम्मादिहिस्स वा ॥११२॥ कुदो ? उवरि णीचागोदस्स बंधाभावा । जं तं उच्चागोदं कम्मं ॥ ११३ ॥ तमेगं ठाणमिदि अज्झाहारो कायव्यो । अधःप्रवृत्तसंक्रमण होना चाहिये? इस शंकाका आचार्यने इस प्रकार निवारण किया है कि उक्त अधःप्रवृत्तसंक्रमणकी प्रवृत्ति तो केवल सर्वसंक्रमणसे पूर्व सत्तामें वर्तमान शेष सव कर्मोको विषय करती है। किन्तु जिन कर्मोका सर्वसंक्रमण होता ही नहीं है उनमें वहां अधःप्रवृत्तसंक्रमण नहीं हो सकता। ऐसी केवल चार ही प्रकृतियां है-- कोधसंज्वलन, मानसंज्वलन, मायासंज्वलन और पुरुषवेद- जिनका अधःप्रवृत्तसंक्रमण और सर्वसंक्रमण होता है । निद्रा, प्रचला, अशुभ वर्णादि चार और उपघात, इन सात प्रकृतियोंका अधःप्रवृत्तसंक्रमण और गुणसंक्रमण ही होता है, सर्वसंक्रमण नहीं। (देखो गो. क. ४१९.-४२८1) निद्रा और प्रचलाका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लगाकर अपूर्वकरणके प्रथम सप्तम भाग तक तो अधःप्रवृत्तसंक्रमण होता है, और वहां उनकी बंध व्युच्छित्ति हो जाने पर उनका अधःप्रवृत्तसंक्रमण बाधित होकर ऊपर सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान तक गुणसंक्रमण होता है । अतः उनकी बन्धव्युच्छित्तिके पश्चात् उनका अधःप्रवृत्तसंक्रमण नहीं होता। गोत्र कर्मकी दो ही प्रकृतियां हैं- उच्चगोत्र और नीचगोत्र ॥११० ॥ यह सूत्र पुनरुक्त दोषसे दूषित नहीं होता है, क्योंकि, विस्मरणशील शिष्योंके स्मारणार्थ पुनः पुनः प्ररूपण करने पर भी कोई दोष नहीं है। जो नीचगोत्रकर्म है, वह एक प्रकृतिरूप बन्धस्थान है ॥ १११ ॥ वह बन्धस्थान नीचगोत्रकर्मको बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवके होता है ॥ ११२ ॥ क्योंकि, इससे ऊपर नीचगोत्रका बन्ध नहीं होता है। जो उच्चगोत्रकर्म है, वह एक प्रकृतिरूप बन्धस्थान है ॥ ११३ ॥ यहां वह एक प्रकृतिरूप बन्धस्थान है, इस वाक्यका ऊपरसे अध्याहार करना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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