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________________ १३० ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१,९-२, १०९. एवं संते अपुव्वकरणम्हि णिद्दा-पयलाणं बंधवोच्छेदे जादे अधापवत्तसंकमो पसज्जदि ति णासंकणिज्ज, तस्स सव्वसंकमपुव्वसेससंतकम्मविसयस्स तदभावे' तस्स वि अभावादो। शंका-ऐसा माननेपर तो अपूर्वकरण गुणस्थानमें निद्रा और प्रचला, इन दोनोंके बन्ध व्युच्छेद होनेपर अधःप्रवृत्तसंक्रमणका प्रसंग प्राप्त होता है ? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करना चाहिए, क्योंकि, सर्वसंक्रमणसे पूर्व शेष प्रकृतियोंके सत्त्वको विषय करनेवाले उस अधःप्रवृत्तसंक्रमणका सर्वसंक्रमणके अभावमें उसका भी अभाव रहता है। _ विशेषार्थ-यहांपर प्रश्न यह है कि, नामकर्मके देवगतिसंबंधी जो पांच बन्धस्थान बतलाये गये हैं उनमें प्रथम चार तो बराबर देवगतिसे संबंध रखते हैं, किन्तु यह यशकीर्ति प्रकृतिसंबंधी बन्धस्थान तो देवगतिके साथ बंधनेवाला नहीं कहा गया, तव फिर उसे देवगतिसंबंधी बंधस्थानों में क्यों गिनाया है ? इसका समाधान इस प्रकार किया गया है- यद्यपि यह ठीक है कि यहां देवगतिके बंधका सम्बन्ध नहीं है, तथापि यश-कीर्तिप्रकृतिके बंध करनेवाले जीवका उससे पूर्व उसी गुणस्थानमें देवगतिके बंधसे सम्बन्ध रहा है, अतः भूतपूर्व न्यायसे उसे देवगतिसम्बन्धी भंगोंमें सम्मिलित कर लिया है। इस भूतपूर्व न्यायका यहां आचार्यने एक दृष्टांत दिया है कि यद्यपि अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें जब क्रोधसंज्वलनकषायके बंधकी व्युच्छित्ति हो जाती है, तब अधःप्रवृत्तसंक्रमण नहीं होना चाहिये, क्योंकि, यह संक्रमण बंधयोग्य कालमें ही होता है। पर तो भी उसमें क्रोधसंज्वलन कषायसंबंधी अधःप्रवृत्तसंक्रमण कुछ काल तक होता ही रहता है जबतक कि उस कषायका सर्वसंक्रमण न हो जाय । इसी प्रकार देवगतिवन्धका विराम हो जाने पर भी उसकी परम्पराको भूतपूर्व न्यायसे मान लेने में कोई विरोध नहीं आता। अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें क्रोधसंज्वलनसम्बन्धी अधःप्रवृत्तसंक्रमणके उदाहरण परसे एक यह शंका उठ खड़ी हुई कि जिस प्रकार अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें कोधसंज्वलनकी बंधव्युच्छित्ति होने पर भी उसमें अधःप्रवृत्तसंक्रमण होता रहता है, उसी प्रकार अपूर्वकरण गुणस्थानमें निद्रा प्रचलाके बंधव्युच्छेद हो जाने पर भी उनमें संकमो हादि । एसो णियमो बंधपयडीणं । xxxx णिद्दा-पयला य अप्पसत्थवष्ण-गंध रस-फास-उवधादाणं अधापवत्तसंकमो गुणसंकमो चेदि दो चेव संकमा । तं जहा- णिद्दा-पयलाणं मिच्छाइद्विप्पहडि जाव अपुवकरणस्स पढमसत्तमभागो ति ताव अधापवत्तसंकमो, एत्थ एदासि बंधुवलंभादो। उवरिं जाव सुहमसांपराइयचरिमसमयो ति ताम गुणसंकमो, बंधाभावादो।xxx तिण्णं संजलणाणं पुरिसवेदस्स च मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अणियहि त्ति अधापवचसकमो, चरिमहिदिखंडयचरिमफालीए एदासिं सव्वसंकमो । धवला, संक्रमअधिकार, कप्रति पत्र १३६३ आदि. १ गिद्दा पयला असुहं वण्णचउकं च उवधादे॥ सत्तण्हं गुणसंकममधापवत्तोxx। गो.क. ४२१-४२२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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