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________________ १, ९-२, १०९.] चूलियाए ट्ठाणसमुक्त्तिणे णाम [ १२९ बंधमाणस्स तं संजदस्स ॥ १०९॥ एदाणि दो वि सुत्ताणि सुगमाणि । होदु णाम एगतीसाए तीसाए एगुणतीसाए अट्ठावीसाए ति चदुण्हं द्वाणाणं देवगदीए सह बंधो, ण एक्किस्से । कुदो ? देवगदिबंधस्स' पंचिंदियजादिआदिअट्ठावीसपयडिबंधाविणाभावितणेण एगत्तविरोहादो चे, ण एस दोसो, इद्वत्तादो । ण सुत्तविरोहो होदि, तस्स गुणट्ठाणणिबंधणत्तेण भूदपुव्वणयं पडुच्च संजुत्तपदुप्पायणे वावदस्स देवगदिबंधाभावे वि अणियट्टिम्मि कोधसंजलणबंधोवरमे वि अधापवत्तसंकमपत्ति' व्व तदुववत्तीदो । वह एक प्रकृतिरूप बन्धस्थान उसी एक यशःकीर्ति प्रकृतिका बन्ध करनेवाले संयतके होता है ॥ १०९॥ ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं। विशेषार्थ--यहांपर संयतसे अभिप्राय अपूर्वकरण गुणस्थानके सातवें भागसे लेकर सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानवर्ती संयतसे है, क्योंकि, केवल एक यश-कीर्ति नामकर्मको छोड़कर शेष समस्त नामकर्मकी प्रकृतियां अपूर्वकरणके छठवें भागमें बन्धसे व्युच्छिन्न हो जाती हैं, परन्तु यश-कीर्ति प्रकृति दश गुणस्थान तक बंधती रहती है। __ शंका-इकतीस, तीस, उनतीस और अट्ठाईस, इन चार बन्धस्थानोंका देवगतिके साथ बन्ध भले ही हो, किन्तु एक प्रकृतिरूप बन्धस्थानका बन्ध देवगतिके साथ नहीं हो सकता है, क्योंकि, देवगतिका बन्ध पंचेन्द्रियजाति आदि अट्ठाईस प्रकृतियोंके बन्धका अविनाभावी है। और इसीलिए उसके साथ एक प्रकृतिरूप बन्धस्थानके एकत्वका विरोध है ? समाधान—यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, यह बात इष्ट है । तथा, वैसा माननेपर सूत्रके साथ विरोध भी नहीं आता है, क्योंकि, गुणस्थान निबंधनक होनेसे, अर्थात् उसी अपूर्वकरण गुणस्थानसे संबंध रखनेके कारण, भूतपूर्वनयकी अपेक्षा संयुक्त प्रतिपादनमें व्यापार करनेवाले उस सूत्रकी देवगतिका बन्ध नहीं होनेपर भी, अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें क्रोधसंज्वलनके बन्धसे उपरम (व्युच्छिन्न) होनेपर भी अधःप्रवृत्तसंक्रमणकी प्रवृत्तिके समान सार्थकता बन जाती है। १ प्रतिषु · देवगदिबंधयस्स ' इति पाठः। २ प्रतिषु च ' इति पाठः । ३ संजलणतिये पुरिसे अधापवत्तो य सवो य । गो. क. ४२४. संसारत्था जीवा सबंधजोगाण तद्दलपमाणा । संकामे तणुरूवं अहापवत्तीए तो णाम । पं. सं. ७६. ध्रुवबन्धिनीनां स्वबंधयोग्यानां प्रकृतीनाम् अध्ववबन्धिन्यस्तु सर्वा अपि योग्या एव, तासां दलं, तत्प्रमाणात्स्तोकात्स्तोक तदनुरूपं संक्रामयति, यथाप्रवृत्या यथाहीन-मध्यमोत्कृष्ट योगानां प्रवृत्तिस्तथा तथा संक्रामयति कर्मदलं, अतोऽस्यैतन्नाम इति गाथार्थः । पं. सं. ७६ स्वो. टीका. निद्राद्विकोपघाताशुभवर्णादिनवकहास्य-रति-भय- जुगुप्सानां त्वपूर्वकरणस्वबंधव्यवच्छेदादारभ्य गुणसंक्रमः प्रवर्तते। पं. सं. ७७ मलय. रीका. जत्थ जासिं पयडीणं बंधो संभवदि तत्थ. तासि पयडीणं बंधे संते असंते वि अधापवत्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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