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________________ १२८ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ९-२, १०६. परघाद- उस्सासं पसत्थविहायगदी तस - बादर - पज्जत्त - पत्तेयसरीरं थिराथिराणमेक्कदरं सुभासुभाणमेक्कदरं सुभग-सुस्सर-आदेज्जं जसकित्तिअजसकित्तीणमेक्कदरं णिमिणं । एदासिं विदियअट्ठावीसाए पयडीणमेक्कम्हि चैव द्वाणं ॥ १०६ ॥ एत्थ भंगा अट्ठ ( ८ ) । सेसं सुगमं । देवगदिं पंचिंदिय - पज्जत्तसंजुत्तं बंधमाणस्स तं मिच्छादिट्टिस्स वा सासणसम्मादिट्टिस्स वा सम्मामिच्छादिट्टिस्स वा असंजदसम्मादिस्सि वा संजदासंजदस्त वा संजदस्त वा ॥ १०७ ॥ संजदस्सेति उत्ते पमत्त संजदग्गहणं । कुदो ? उवरिमाणमथिरासुभ-अजस कित्तीणं बंधाभावा । सेसं सुगमं । तत्थ इमं एक्किस्से ट्टाणं जसकित्तिणामं । एदिस्से पयडीए एक्कम्हि चेव द्वाणं ॥ १०८ ॥ गति", त्रस", बादर", पर्याप्त, प्रत्येकशरीर", स्थिर और अस्थिर इन दोनों में से कोई एक", शुभ और अशुभ इन दोनोंमें से कोई एक, सुभग, सुस्वर", आदेय", यशःकीर्त्ति और अयशःकीर्त्ति इन दोनोंमें से कोई एक और निर्माण नामकर्म" । इन द्वितीय अट्ठाईस प्रकृतियोंका एक ही भावमें अवस्थान है ॥ १०६ ॥ २७ sive स्थिर, शुभ और यशः कीर्त्ति, इन तीन युगलोंके विकल्पसे (२x२x२=८) आठ भंग होते हैं । वह द्वितीय अट्ठाईस प्रकृतिरूप बन्धस्थान पंचेन्द्रियजाति और पर्याप्त नामकर्म से संयुक्त देवगतिको बांधनेवाले मिध्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयतके होता है ॥ १०७ ॥ 'संयतके ' ऐसा कहनेपर प्रमत्तसंयतका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि, उपरिम गुणस्थानवर्त्ती जीवोंके अस्थिर, अशुभ और अयशः कीर्त्ति, इन प्रकृतियोंका बंध नहीं होता है । शेष सूत्रार्थ सुगम है । नामकर्म के देवगतिसम्बन्धी उक्त पांच बन्धस्थानों में यशः कीर्त्ति नामकर्मसम्बन्धी यह एक प्रकृतिरूप बन्धस्थान है । इस एक प्रकृतिरूप बन्धस्थानका एक ही भाव अवस्थान है ॥ १०८ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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