SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १, ९-२, १०५.] चूलियाए ठाणसमुक्त्तिणे णाम [ १२७ गंध-रस-फासं देवगदिपाओग्गाणुपुव्वी अगुरुअलहुअ-उवघाद-परघादउस्सासं पसत्थविहायगदी तस-बादर-पजत्त-पत्तेयसरीर-थिर-सुभ-सुभगसुस्सर-आदेज-जसकित्ति-णिमिणणामं । एदासिं पढमअट्ठवीसाए पयडीणमेक्कम्हि चेव हाणं ॥ १०४ ॥ ___एत्थ अजसकित्तीए बंधो गत्थि, पमत्तगुणट्ठाणे तिस्से बंधविणासादो । सेसं सुगमं । देवगदिं पंचिंदिय-पज्जत्तसंजुत्तं बंधमाणस्स तं अप्पमत्तसंजदस्स वा अपुवकरणस्स वा ॥ १०५ ॥ एवं पि सुगम । तत्थ इमं विदियअट्ठावीसाए हाणं, देवगदी पंचिंदियजादी वेउव्विय-तेजा कम्मइयसरीरं समचउरससंठाणं वेउव्वियसरीरअंगोवंगं वण्ण-गंध-रस-फासं देवगदिपाओग्गाणुपुब्बी अगुरुअलहुअ-उवघाददेवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी", अगुरुलघु, उपघात", परघात", उच्छास", प्रशस्तविहायोगति", त्रस", बादर", पर्याप्त', प्रत्येकशरीर", स्थिर", शुभ, सुभग", सुस्वर" आदेय", यश कीर्ति" और निर्माण नामकर्म । इन प्रथम अट्ठाईस प्रकृतियोंका एक ही भावमें अवस्थान है ॥ १०४ ॥ यहांपर अयश कीर्तिका बन्ध नहीं होता है, क्योंकि, प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें उसके बन्धका विनाश हो जाता है। शेष सूत्रार्थ सुगम है । वह प्रथम अट्ठाईस प्रकृतिरूप बन्धस्थान पंचेन्द्रियजाति और पर्याप्त नामकर्मसे संयुक्त देवगतिको बांधनेवाले अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरणसंयतके होता यह सूत्र भी सुगम है। नामकर्मके देवगतिसम्बन्धी उक्त पांच बन्धस्थानोंमें यह द्वितीय अट्ठाईस प्रकृतिरूप बन्धस्थान है- देवगति', पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर', तैजसशरीर', कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीर-अंगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस", स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी', अगुरुलघु", उपघात", परघात", उच्छास", प्रशस्तविहायो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy