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छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, ९ - २, १०३.
देवगदी सह उज्जोवस्स किण्ण बंधो होदि १ ण, देवगदीए तस्स उदयाभावा, तिरिक्ख गर्दि मे तूण अण्णगदीहि संह तस्म बंधविरोधादो च । देवेसु उज्जोवस्सुदयाभावे देवाणं देहदित्ती कुदो होदि १ वण्णणामकम्मोदयादो । उज्जोउदयजाददेहदित्ती सुडुत्थोवा, पाएण थोवावयवपडिणियदा, तिरिक्खगदिउदयसंबद्धा च । तेण उज्जोउदओ तिरिक्खेसु चैव, ण देवेसु; विरोहादो । भंगा अट्ठ ८ । सेस सुगमं ।
१२६]
देवदिं पंचिंदिय-पज्जत्त- तित्थयरसंजुत्तं बंधमाणस्स तं असंजदसम्मादिट्ठिस्स वा संजदासंजदस्स वा ॥ १०३ ॥
सुगममेदं ।
तत्थ इमं पढमअट्ठावीसाए हाणं, देवगढ़ी पंचिंदियजादी वेव्विय-तेजा - कम्म यसरीरं समचउरससंठाणं वेडव्वियअंगोवंगं वण्ण
शंका- देवगतिके साथ उद्योतप्रकृतिका बन्ध क्यों नहीं होता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, देवगतिमें उद्योतप्रकृतिके उदयका अभाव है, और तिर्यग्गतिको छोड़कर अन्य गतियोंके साथ उसके बंधनेका विरोध है ।
शंका- देवोंमें उद्योतप्रकृतिका उदय नहीं होनेपर देवोंके शरीर में दीप्ति (कान्ति) कहांसे होती है ?
समाधान - देवोंके शरीरोंमें दीप्ति वर्णनामकर्मके उदयसे होती है ।
उद्योत प्रकृतिके उदयसे उत्पन्न होनेवाली देहकी दीप्ति अत्यन्त अल्प, प्रायः स्तोक (थोड़े ) अवयवों में प्रतिनियत और तिर्यग्गति नामकर्मके उदयसे संबद्ध होती है । इसलिए उद्योतप्रकृतिका उदय तिर्यचों में ही होता है, देवोंमें नहीं, क्योंकि, वैसा माननेमें विरोध आता है । यहांपर स्थिर, शुभ और यशःकीर्त्ति, इन तीन युगलोंके विकल्पसे ( २x२x२=८ ) आठ भंग होते हैं। शेष सूत्रार्थ सुगम है ।
वह द्वितीय उनतीस प्रकृतिरूप बन्धस्थान पंचेन्द्रियजाति, पर्याप्त और तीर्थकर प्रकृतिसे संयुक्त देवगतिको बांधनेवाले असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयतके होता हैं ॥ १०३ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
नामकर्मके देवगतिसम्बन्धी उक्त पांच बन्धस्थानोंमें यह प्रथम अट्ठाईस प्रकृतिरूप बन्धस्थान है— देवगति', पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर', समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीर- अंगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस",
स्पर्श",
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