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१, ९-२, १०२.] चूलियाए द्वाणसमुक्त्तिणे णाम
[१२५ वज्ज' वज्जिदधमिदि घेत्तव्यं । सेसं सुगमं ।
देवगदिं पंचिंदिय-पज्जत्त-तित्थयरसंजुत्तं बंधमाणस्स तं अप्पमत्तसंजदस्स वा अपुवकरणस्स वा ॥ १०१ ॥
सुगममेदं । ___ तत्थ इमं विदियएगुणतीसाए हाणं, देवगदी पंचिंदियजादी वेउव्विय-तेजा-कम्मइयसरीरं समचउरससंठाणं वेउव्वियसरीरअंगोवंगं वण्ण-गंध-रस-फासं देवगदिपाओग्गाणुपुवी अगुरुअलहुअ-उवघादपरघाद-उस्सासं पसत्थविहायगदी तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीरं थिराथिराणमेक्कदरं सुभासुभाणमेक्कदरं सुभग-सुस्सर-आदेजं जसकित्तिअजसकित्तीणमेक्कदरं णिमिण-तित्थयरं । एदासिमेगुणतीसाए पयडीणमेक्कम्हि चेव हाणं ॥ १०२ ॥
'वज्ज' इस पदका ' छोड़ना चाहिए' यह अर्थ ग्रहण करना चाहिए । शेष सूत्रार्थ सुगम है।
वह प्रथम उनतीस प्रकृतिरूप बन्धस्थान पंचेन्द्रियजाति, पर्याप्त और तीर्थकर प्रकृतिसे संयुक्त देवगतिको बांधनेवाले अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण संयतके होता है ॥ १०१॥
यह सूत्र सुगम है।
नामकर्मके देवगतिसम्बन्धी उक्त पांच बन्धस्थानोंमें यह द्वितीय उनतीस प्रकृतिरूप बन्धस्थान है-- देवगति', पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर', तैजसशरीर', कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीर-अंगोपांग, वर्ण', गन्ध, रस", स्पर्श", देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी', अगुरुलघु, उपघात", परघात", उच्छास', प्रशस्तविहायोगति', त्रस", बादर", पर्याप्त, प्रत्येकशरीर', स्थिर और अस्थिर इन दोनों से कोई एक', शुभ और अशुभ इन दोनोंमेंसे कोई एक, सुभग", सुस्वर", आदेय , यश कीर्ति और अयशःकीर्ति इन दोनों से कोई एक", निर्माण", और तीर्थकर नामकर्म । इन द्वितीय उनास प्रकृतियोंका एक ही भावमें अवस्थान है ॥ १०२।।
१ प्रतिषु — वजं' इति पाठः ।
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