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छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, ९–२, ९८.
तत्थ इमं तीसाए ठाणं । जधा, एक्कत्तीसाए भंगो | णवरि विसेसो तित्थयरं वज्ज । एदासिं तीसाए पयडीणमेक्कम्हि चेव ट्टणं ॥ ९८ ॥
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एत्थ अत्थरादीणं किण्ण बंधो होदि ? ण, एदासिं विसोहीए बंधविरोहा । से सुगमं ।
देवगदिं पंचिंदिय - पज्जत्त आहारसंजुत्तं बंधमाणस्स तं अप्पमत्तसंजदस्स वा अपुव्वकरणस्स वा ।। ९९ ।।
सुगममेदं ।
तत्थ इमं पढमएगूणतीसाए द्वाणं । जधा, एक्कत्ती साए भंगो । णवरि विसेसो, आहारसरीरं वज्ज । एदासिं पढमए गूणतीसाए पयडीणं एक्कम्हि चेव द्वाणं ॥ १०० ॥
नामकर्म के देवगतिसम्बन्धी उक्त पांच बन्धस्थानोंमें यह तीस प्रकृतिसम्बन्धी बन्धस्थान है । वह किस प्रकार है ? वह इकतीस प्रकृतिसम्बन्धी बन्धस्थानके समान प्रकृति-भंगवाला है । विशेषता केवल यह है कि यहां तीर्थकर प्रकृतिको छोड़ देना चाहिए | इन तीस प्रकृतियोंका एक ही भावमें अवस्थान है ॥ ९८ ॥
शंका- यहांपर अस्थिर आदि प्रकृतियोंका बन्ध क्यों नहीं होता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, इन अस्थिर आदि अशुभ प्रकृतियोंका विशुद्धिके साथ बंधनेका विरोध है ।
शेष सूत्रार्थ सुगम है
वह तीस प्रकृतिरूप बन्धस्थान पंचेन्द्रियजाति, पर्याप्त और आहारकशरीरसे संयुक्त देवगतिको बांधनेवाले अप्रमत्तसंयत के अथवा अपूर्वकरणसंयत के होता है ॥ ९९ ॥
यह सूत्र सुगम है।
नामकर्म के देवगतिसम्बन्धी उक्त पांच बन्धस्थानों में यह प्रथम उनतीस प्रकृतिसम्बन्धी बन्धस्थान है । वह किस प्रकार है ? वह इकतीस प्रकृतिसम्बन्धी बन्धस्थानके समान प्रकृति-भंगवाला है । विशेषता केवल यह है कि यहां आहारकशरीर और आहारक- अंगोपांगको छोड़ देना चाहिए। इन प्रथम उनतीस प्रकृतियों का एक ही भाव अवस्थान है ॥ १०० ॥
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