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१, ९-२, ९७.] चूलियाए ढाणसमुक्त्तिणे णाम
[ १२३ तत्थ इमं एक्कत्तीसाए हाणं, देवगदी पंचिंदियजादी वेउब्वियआहार-तेजा-कम्मइयसरीरं समचउरससंठाणं वेउब्विय-आहारअंगोवंगं वण्ण-गंध-रस-फासं देवगदिपाओग्गाणुपुब्वी अगुरुअलहुअ-उवघादपरघाद-उस्सासं पसत्थविहायगदी तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिरसुह-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति-णिमिण-तित्थयरं । एदासिमेक्कतीसाए पयडीणमेक्कम्हि चेव हाणं ॥ ९६ ॥
देवगदीए सह छ संघडणाणि किण्ण बज्झंति ? ण, देवेसु संघडणाणमुदया. भावा । सेसं सुगमं ।
देवगदिं पंचिंदिय-पज्जत्त-आहार-तित्थयरसंजुत्तं बंधमाणस्स तं अप्पमत्तसंजदस्स वा अपुवकरणस्स वा ॥ ९७ ॥
सुगममेदं ।
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नामकर्मके देवगतिसम्बन्धी उक्त पांच बन्धस्थानोंमें यह इकतीस प्रकृतिरूप बन्धस्थान है- देवगति', पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर', आहारकशरीर, तैजसशरीर', कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीर-अंगोपांग', आहारकशरीर-अंगोपांग, वर्ण", गन्ध", रस", स्पर्श', देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी", अगुरुलघु', उपघात", परघात', उच्छास", प्रशस्तविहायोगति", वस", बादर", पर्याप्त", प्रत्येकशरीर", स्थिर", शुभ, सुभग", सुस्वर", आदेय", यशःकीर्ति", निर्माण और तीर्थकर"। इन इकतीस प्रकृतियोंका एक ही भावमें अवस्थान है ॥ ९६ ॥
शंका-देवगतिके साथ छह संहनन क्यों नहीं बंधते हैं ? समाधान नहीं, क्योंकि, देवोंमें संहननोंके उदयका अभाव है। शेष सूत्रार्थ सुगम है।
वह इकतीस प्रकृतिरूप बन्धस्थान पंचेन्द्रियजाति, पर्याप्त, आहारकशरीर और तीर्थकर नामकर्मसे संयुक्त देवगतिको बांधनेवाले अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण संयतके होता है ॥ ९७॥
यह सूत्र सुगम है।
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