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१२२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ९-२, ९३. लहुअ-उवधाद-तस-बादर-अपज्जत्त-पत्तेयसरीर-अथिर-असुभ-दुभगअणादेज्ज-अजसकित्ति-णिमिणं । एदासिं पणुवीसाए पयडीणमेक्कम्हि चेव हाणं ॥ ९३॥
अपजत्तेण सह थिरादीणि' किण्ण बझंति ? ण, संकिलेसद्धाए बज्झमाणअपज्जतेण सह थिरादीणं विसोहिपयडीणं बंधविरोहा । सेसं सुगमं ।
मणुसगदिं पंचिंदियजादि-अपज्जत्तसंजुत्तं बंधमाणस्सतं मिच्छादिहिस्स ॥ ९४॥
सुगममेदं ।
देवगदिणामाए पंच हाणाणि, एक्कत्तीसाए तीसाए एगुणतीसाए अहवीसाए एक्किस्से हाणं चेदि ॥ ९५॥
एवं संगहणयसुत्तं, उवरि उच्चमाणमसेसमत्थमवगाहिय अवढिदत्तादो। चादर", अपर्याप्त', प्रत्येकशरीर", अस्थिर", अशुभ, दुर्भगः, अनादेय", अयशःकीर्ति और निर्माण नामकर्म"। इन पच्चीस प्रकृतियोंका एक ही भावमें अवस्थान है ॥ ९३ ॥
शंका-अपर्याप्तप्रकृतिके साथ स्थिर आदि प्रकृतियां क्यों नहीं बंधती हैं ?
समाधान नहीं, क्योंकि, संक्लेश-कालमें बंधनेवाले अपर्याप्त नामकर्मके साथ स्थिर आदि विशोधि-कालमें बंधनेवाली शुभ प्रकृतियोंके बंधका विरोध है।
शेष सूत्रार्थ सुगम है।
वह पच्चीस प्रकृतिरूप बन्धस्थान पंचेन्द्रियजाति और अपर्याप्त नामकर्मसे संयुक्त मनुष्यगतिको बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि जीवके होता है ॥ ९४ ॥ ___ यह सूत्र सुगम है।
देवगति नामकर्मके पांच बन्धस्थान हैं- इकतीस प्रकृतिसम्बन्धी, तीस प्रकृतिसम्बन्धी, उनतीस प्रकृतिसम्बन्धी, अट्ठाईस प्रकृतिसम्बन्धी और एक प्रकृतिसम्बन्धी बन्धस्थान ॥ ९५ ॥
यह संग्रहनयके आश्रित सूत्र है, क्योंकि, ऊपर कहे जानेवाले अशेष अर्थको अवगाहन करके अवस्थित है।
प्रतिषु थिराथिरादीणि 'इति पाठः।
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