________________
१२० ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, ९-२, ८९. जसकित्ति-अजसकित्तीणमेक्कदरं णिमिणं । एदासिं विदियएगूणतीसाए पयडीणमेक्कम्हि चेव हाणं ॥ ८९ ॥
सेसं सुगमं । भंगा वत्तीससयं ( ३२०० )।
मणुसगदिं पंचिंदिय-पज्जत्तसंजुत्तं बंधमाणस्स तं सासणसम्मादिहिस्स ॥ ९०॥
एवं पि सुगमं । __ तत्थ इमं तदियएगुणतीसाए ठाणं, मणुसगदी पंचिंदियजादी ओरालिय-तेजा कम्मइयसरीरं छण्हं संहाणाणमेक्कदरं ओरालियसरीरअंगोवंगं छण्हं संघडणाणमेक्कदरं वण्ण-गंध-रस फासं मणुसगदिपा
ओग्गाणुपुब्बी अगुरुअलहुव-उवघाद-परघाद-उस्सासं दोण्हं विहायगदीणमेकदरं तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीरं थिराथिराणमेक्कदरं सुहासुहाणमेक्कदरं सुभग दुभगाणमेक्कदरं सुस्सर-दुस्सराणमेक्कदरं
और अयशःकीर्ति इन दोनोंमेंसे कोई एक', और निर्माण नामकर्म । इन द्वितीय उनतीस प्रकृतियोंका एक ही भावमें अवस्थान है ॥ ८९ ॥
शेष सूत्रार्थ सुगम है। केवल भंग यहांपर पांच संस्थान, पांच संहनन, तथा विहायोगति आदि उक्त सात युगलोंके विकल्पसे (५४५४२x२x२x२x२x२x२=३२००) बत्तीस सौ होते हैं।
वह द्वितीय उनतीस प्रकृतिरूप बन्धस्थान पंचेन्द्रियजाति और पर्याप्त नामकर्मसे संयुक्त मनुष्यगतिको बांधनेवाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवके होता है ॥ ९० ॥
यह सूत्र भी सुगम है।
नामकर्मके मनुष्यगतिसम्बन्धी उक्त तीन बन्धस्थानोंमें यह तृतीय उनतीस प्रकृतिरूप बन्धस्थान है- मनुष्यगति', पंचेन्द्रियजाति', औदारिकशरीर', तैजसशरीर, कार्मणशरीर, छहों संस्थानों से कोई एक', औदारिकशरीर-अंगोपांग, छहों संहननोंमेंसे कोई एक', वर्ण, गन्ध, रस", स्पर्श', मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी', अगुरुलघु, उपघात", परघात", उच्छास", दोनों विहायोगतियोंमेंसे कोई एक', त्रस", बादर, पर्याप्त', प्रत्येकशरीर', स्थिर और अस्थिर इन दोनोंमेंसे कोई एक", शुभ और अशुभ इन दोनों से कोई एक", सुभग और दुर्भग इन दोनों से कोई एक ", सुस्वर और
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org