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१, ९–१, ८८. ]
चूलियाए द्वाणसमुत्तिणे णामं
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मणुसगदिं पंचिंदिय-पज्जत्तसंजुत्तं बंधमाणस्स तं सम्मामिच्छादिट्टिस्स वा असंजदसम्मादिट्टिस्स वा ॥ ८८ ॥
बंधट्टणाणं सामित्तं किमहं उच्चदे ? ण, अण्णहा अउत्तसमाणदावत्तदो । सेसं सुगमं ।
तत्थ इमं विदियाए एगूणतीसाए द्वाणं, मणुसगदी पंचिंदिय जादी ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीरं हुंडठाणं वज्ज पंचन्हं संठाणाणमेकदरं ओरालियसरीरअंगोवंगं असंपत्तसेवट्टसंघडणं वज्ज पंचहं संघडणाणमेकदरं वण्ण-गंध-रस- फासं मणुसगदिपाओग्गाणुपुब्बी अगुरुअलहु-उवघाद-परघाद-उस्सानं दोन्हं विहायगदीणमेकदरं तस- बादरपज्जत्त - पत्तेयसरीरं थिराथिराणमेक्कदरं सुभासुभाणमेक्कदरं सुहव - दुहवाणमेक्कदरं सुस्सर दुस्सराणमेक्कदरं आदेज- अणादेजाणमेक्कदरं वह प्रथम उनतीस प्रकृतिरूप बन्धस्थान पंचेन्द्रियजाति और पर्याप्तनामकर्म से संयुक्त मनुष्यगतिको बांधनेवाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टिके होता है ॥ ८८ ॥
शंका-बन्धस्थानोंका स्वामित्व किसलिए कहते हैं ?
समाधान- नहीं, अन्यथा अनुक्त समानताकी आपत्ति प्राप्त होती है । अर्थात् यदि बन्धस्थानोंका स्वामित्व नहीं कहा जायगा तो फिर वन्धस्थानोंका कहना भी नहीं कहने के समान हो जायगा ।
शेष सूत्रार्थ सुगम है ।
नामकर्मके मनुष्यगतिसम्बन्धी उक्त तीन बन्धस्थानों में यह द्वितीय उनतीस प्रकृतिसम्बन्धी बन्धस्थान है— मनुष्यगति', पंचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, , तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुंडसंस्थानको छोड़कर शेष पांच संस्थानों में से कोई एक ), औदारिकशरीर - अंगोपांग, असंप्राप्तासृपाटिकासंहननको छोड़कर पांच संहननों में से कोई एक, वर्ण, गन्ध ं, रस", स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी", अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्च्छ्रास ँ, दोनों विहायोगतियोंमेंसे कोई एक, त्रस, चादर, पर्याप्त', प्रत्येकशरीर, स्थिर और अस्थिर इन दोनोंमें से कोई एक शुभ और अशुभ इन दोनों में से कोई एक ", सुभग और दुर्भग इन दोनोंमें से कोई एक", सुस्वर और दुःस्वर इन दोनोंमें से कोई एक", आदेय और अनोदय इन दोनों में से कोई एक ", यशःकीर्त्ति
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