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१, ९-२, ८५.] चूलियाए ट्ठाणसमुक्त्तिणे णाम
[११७ सुगममेदं ।
मणुसगदिणामाए तिणि टाणाणि, तीसाए एगूणतीसाए पणुवीसाए हाणं चेदि ॥ ८४ ॥
एवं संगहणयस्स मुत्तं, उवरि उच्चमाणसव्वत्थस्स आधारभावेण अवट्ठाणादो ।
तत्थ इमं तीसाए ठाणं, मणुसगदी पंचिंदियजादी ओरालियतेजा-कम्मइयसरीरं समचउरससंठाणं ओरालियसरीरअंगोवंगं वज्जरिसहसंघडणं वण्ण-गंध-रस-फासं मणुसगदिपाओग्गाणुपुव्वी अगुरुअलहुअ-उवघाद-परघाद-उस्सास-पसत्थविहायगदी तस-बादर-पज्जतपत्तेयसरीरं थिरथिराणमेकदरं सुहासुहाणमेक्कदरं सुभग-सुस्सरआदेज्जं जसकित्ति-अजसकित्तीणमेक्कदरं णिमिणं तित्थयरं । एदासिं तीसाए पयडीणमेकम्हि चेव हाणं ॥ ८५॥
तित्थयरेण सह अजसकित्तीए अप्पसत्थाए तेण सह उदयमणागच्छमाणाए यह सूत्र सुगम है।
मनुष्यगति नामकर्मके तीन बन्धस्थान हैं- तीस प्रकृतिसम्बन्धी, उनतीस प्रकृतिसम्बन्धी और पच्चीस प्रकृतिसम्बन्धी बन्धस्थान ॥ ८४ ॥
यह संग्रहनयका सूत्र है, क्योंकि, ऊपर कहे जानेवाले सर्व अर्थके आधाररूपसे इसका अवस्थान है।
नामकर्मके मनुष्यगतिसम्बन्धी उक्त तीन बन्धस्थानों में यह तीस प्रकृतिरूप बन्धस्थान है- मनुष्यगति', पंचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर', तैजसशरीर', कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीर-अंगोपांग, वज्रवृषभनाराचसंहनन', वर्ण, गन्ध", रस", स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी", अगुरुलघु", उपघात", परघात', उच्छास", प्रशस्तविहायोगति", त्रस, बादर", पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर और, अस्थिर इन दोनोंमेंसे कोई एक', शुभ और अशुभ इन दोनोंमेंसे कोई एक", सुभग" सुस्वर", आदेय", यशकीर्ति और अयशःकीर्ति इन दोनों से कोई एक, निर्माण", और तीर्थकर नामकर्म । इन तीस प्रकृतियोंके बन्धस्थानका एक ही भावमें अवस्थान है ।। ८५ ॥
शंका-तीर्थकर प्रकृति के साथ उदयमें नहीं आनेवाली अप्रशस्त अयश-कीर्तिका
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