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११६) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ९-२, ८२. तत्थ इमं तेवीसाए ट्ठाणं, तिरिक्खगदी एइंदियजादी ओरालियतेजा-कम्मइयसरीरं हुंडसंठाणं वण्ण-गंध-रस-फासं तिरिक्खगदिपाओग्गाणुपुव्वी अगुरुअलहुअ-उवघाद-थावरं बादर-सुहमाणमेक्कदरं अपज्जत्तं पत्तेय-साधारणसरीराणमेक्कदरं अथिर-असुह-दुहव-अणादेज. अजसकित्ति-णिमिणं । एदासिं तेवीसाए पयडीणमेक्कम्हि चेव ढाणं ॥८२ ॥
__ एत्थ संघडणस्स बंधो किण्ण उत्तो ? ण, एइंदिएसु संघडणस्सुदयाभावा । एत्थ भंगा चत्तारि (४)। सेसं सुगमं ।
तिरिक्खगदिं एइंदिय-अपज्जत्त बादर-सुहुमाणमेकदरसंजुत्तं बंधमाणस्स तं मिच्छादिट्ठिस्स ॥ ८३॥
नामकर्मके तिर्यग्गतिसम्बन्धी उक्त पांच बन्धस्थानों में यह तेवीस प्रकृतिसम्बन्धी बन्धस्थान है-तिर्यग्गति', एकेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर', तैजसशरीर', कार्मणशरीर', हुंडसंस्थान', वर्ण, गन्ध', रस, स्पर्श", तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी', अगुरुलघु", उपघात", स्थावर", बादर और सूक्ष्म इन दोनोंमेंसे कोई एक", अपर्याप्त', प्रत्येकशरीर और साधारणशरीर इन दोनों से कोई एक", अस्थिर", अशुभ', दुर्भग", अनादेय", अयशःकीर्ति और निर्माण नामकर्म । इन तेवीस प्रकृतियोंका एक ही भावमें अवस्थान है ॥ ८२ ॥
शंका-यहांपर, अर्थात् तेवीस प्रकृतिरूप बन्धस्थानमें, संहननकर्मका बन्ध क्यों नहीं कहा?
समाधान-नहीं, क्योंकि, एकेन्द्रिय जीवों में संहननकर्मका उदय नहीं होता है।
यहांपर बादर और प्रत्येकशरीर इन दो युगलोंके विकल्पसे (२४२-४) चार भंग होते हैं। शेष सूत्रार्थ सुगम है ।
__ वह तेवीस प्रकृतिरूप बन्धस्थान एकेन्द्रियजाति, अपर्याप्त, तथा बादर और सूक्ष्म इन दोनोंमेंसे किसी एकसे संयुक्त तिर्यग्गतिको बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि जीवके होता है ॥ ८३ ॥
२ भूबादरतेवीसं बंधतो सवमेव पणुवीसं । बंधदि मिच्छाइट्ठी एवं सेसाणमाणज्जो ॥ गो. क. ५६५.
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